Personal Reflections on Practice

बच्चे परीक्षा में प्रश्नपत्र में प्रश्न क्यों छोड़ते हैं ? एक आवासीय शिविर के अनुभव

बच्चों से टीचर ने प्रश्न का क्या मतलब होता है, इस पर बात की। उन्होंने चर्चा की कि प्रश्न का मतलब होता है कि वह आपको कुछ निर्देश दे रहे हैं, बता रहे हैं कि आपको आख़‍िर क्या करना है? प्रश्न एक ही होता है मगर उसके जवाब देने के और लिखने के तरीक़े अलग–अलग होते हैं।

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बच्चे परीक्षा में प्रश्नपत्र में प्रश्न क्यों छोड़ते हैं ? एक आवासीय शिविर के अनुभव

यशस्वी द्विवेदी

सेवा मन्दिर के द्वारा ‘आउट ऑफ़ स्कूल’ बच्चों के लिए बाल आवासीय शिविर का आयोजन हर वर्ष किया जाता है। जहाँ पर लगभग 150 से 200 बच्चे हर वर्ष इसका हिस्सा बनते हैं। इस काम से, बारीक़ी से जुड़ाव होने के कारण कई बार ऐसे मौक़े मिलते हैं जहाँ पर एक कक्षा और बच्चों के सीखने-सिखाने के आयामों को बहुत ही नज़दीक और व्यक्तिगत तौर पर देखा-समझा जा सके। कई बार हम बच्चों की शैक्षणिक प्रगति को उनके मूल्‍यांकन, जिसे परीक्षा कहा जाता है, के सन्दर्भ में ज्‍़यादा देखते हैं। अक्सर हम यह तो समझ पाते हैं कि बच्चे को अमुक विषय में कितने नम्बर मिले/ वह सारे सवाल और प्रश्न कर पाया या नहीं? जो याद किया था वह याद रह गया या नहीं। जो लिखना सीखा था उसे किस हद तक सही-सही लिख पाया या नहीं। साथ ही हमारी नज़र उन बिन्‍दुओं पर भी जाती ही है जहाँ बच्चे ने प्रश्न छोड़ दिया होता है, जिसकी वज़ह से उसने कम नम्बर हासिल किए। मगर इन सारी प्रक्रियायों में एक बात जो हमसे छूट जाती है वह है इसके कारण को देखना। कॉपी में छूटे प्रश्न के पीछे की असली वज़ह क्या हैं? क्या सिर्फ़ लिखना-पढ़ना या समझने में कमी या फिर कुछ और भी? और यदि यहाँ तक हम पहुँच पाते हैं तो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सवाल और क़दम बच्चे के साथ उन बिन्‍दुओं पर संवाद। यह संवाद कई बार व्यक्तिगत स्तर का तो कई बार बच्चों के सामूहिक स्तर का भी होना ज़रूरी लगता है। इन्ही सारे प्रश्नों, पहलुओं को जब नज़दीक से देखने और इनके फ़ायदे जानने का मौक़ा मिला तो बहुत ही अलग परिदृश्‍य सामने आया। इन छोटी–छोटी बातों को ध्यान से देखा जाए तो हम यह सोच सकते हैं कि बच्चे को किस हद तक आगे मदद की जानी है।

यह शिविर इस साल का आखिरी शिविर है, जहाँ पर शिक्षा से वंचित बच्चों की कक्षा का अवलोकन और उनकी बातचीत का हिस्सा बनने का मौक़ा मिला। मुख्यत: घर में भाई-बहन के होने से घर की ज़‍िम्मेदारी में इन बच्चों की अहम भूमिका होती है। वह या तो घरेलू कामों में मदद पहुँचाते हैं, या भाई-बहनों को सम्‍भालते हैं ताकि उनके माता-पिता काम पर जा सकें। कभी-कभी बच्चे भी काम पर जाते हैं। परिवार का समय-समय पर माइग्रेट होना और उनके गाँव में कभी-कभी शिक्षा के लिए अनुकूल सुविधा का न होना भी बच्चों के आउट ऑफ़ स्कूल होने के कारणों में से हैं।

इस शिविर में काम करते हुए बच्चों के सीखने की प्रक्रिया में बच्चों का सतत मूल्यांकन टीचर की प्रमुख ज़‍िम्मेदारी होती है।

शिक्षक, क्रम से सभी विषयों (हिन्‍दी,गणित,अँग्रेज़ी) के प्रश्नों पर बच्चों के साथ बात करते हैं, हर बच्चे के जवाब अनुसार विचार-विमर्श करते हैं, बच्चों से पूछा जाता है कि उनके अनुसार उन्हें उस प्रश्न में पूरे अंक क्‍यों नहीं मिले आदि।

रेजिडेंशियल लर्निंग कैम्‍प – सेवा मन्दिर की शिक्षा–इकाई का एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण प्रोग्राम है जिसका उद्देश्य राजस्थान के उदयपुर जिले के अलग–अलग ब्लाक में सेवा मन्दिर के कार्यरत क्षेत्र के आउट ऑफ़ स्कूल बच्चों में इस शिविर की सहायता से गणित, भाषा को उनके सन्दर्भ और पूर्व ज्ञान का उपयोग करते हुए बेसिक और आधारभूत समझ विकसित करना और स्कूली-शिक्षा से जोड़ना।

यह शिविर डॉक्टर मोहनसिंह मेहता ट्रेनिंग सेंटर, जो कि काया नामक जगह पर बना हुआ है, में चलाए जाते हैं। यह सेवा मन्दिर का ही ट्रेनिंग सेंटर है। इस बाल आवासीय शिविर का आयोजन एक वर्ष में 3 बार किया जाता है। प्रत्येक शिविर 2 महीने का होता है। प्रथम शिविर में चयनित बच्चे ही तीनों शिविर का हिस्सा होते हैं। भाषा,गणित के साथ–साथ शिविर में अन्य गतिविधियाँ जैसे कि एक्स्पोजर विजिट, सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा स्वास्थ्य से भी जुड़ी होती हैं। बच्चों को पूरी पढ़ाई गतिविधि आधारित तरीक़े से करवाई जाती है। बच्चों को विभिन्न गतिविधियों और सन्दर्भ सामग्री की सहायता से भाषा, गणित, बेसिक अँग्रेज़ी सिखाई जाती है। इस शिविर का मुख्य उद्देश्य होता है कि :

  1. बच्‍चे के पूर्व–ज्ञान, भाषा, अनुभव के आधार पर शिक्षण सामग्री तैयार की जाए व पठन–पाठन का काम किया जा सके।
  2. बच्चों के ज्ञान और उम्र के आधार पर आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों में नामांकन करवाया जाए।

शिविर में हिस्सा लेने वाले बच्चों की उम्र 6-14 वर्ष होती है। शिविर में बच्चों की संख्या हर बार बदलती रहती है, लेकिन एक समय में यहाँ 150 से 200 बच्चों के लिए जगह है। शिविर शुरू होने से पहले टीचर्स/ अनुदेशक की 6 दिवसीय ट्रेनिंग होती है। बच्चों से सम्बन्धित जुड़ाव को लेकर, टीचर की ख़ुद की समझ व पूर्व अनुभव की शेयरिंग, अन्य गतिविधियों में बच्‍चों को कैसे जोड़ें आदि को लेकर टीचर के साथ साप्ताहिक बैठक होती है, जिसमें अन्य एजेंडा के साथ उनके द्वारा पढ़ाए जा रहे कुल बच्‍चों (जिनकी संख्या 10 होती हैं) पर स्पेसिफिक तरीक़े से बात की जाती है।

हर बच्चा तीन शिविर पूरा करने के बाद औपचारिक शिक्षा के लिए गाँव के ही अन्य स्कूल से जोड़ा जाता है। बच्चों की शिक्षा और विद्यालय से जुड़ाव / नियमितता बनाए रखने में शिविर के चयनित अनुदेशक बहुत मददगार साबित होते हैं।हर तीन साल में इन बच्चों की रेटेन्शन स्टडी की जाती है। साथ ही, चूँकि हम लोकल टीचर्स चुनते हैं तो शिविर ख़त्‍म होने के बाद इन टीचर्स की ज़‍िम्मेदारी होती है कि वह इन बच्चों से मिलते रहें। साथ ही सेवा मन्दिर के दूसरे कार्यक्रम में काम करने वाले टीचर्स का भी इन बच्चों से जुड़ाव बनाए रखा जाता है।

अनेक गतिविधियों के साथ–साथ शिविर में बच्चों का मूल्यांकन महीने में 2 बार किया जाता है जिसका उद्देश्य है कि उन बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षक यह समझ पाएँ कि अब उन्हें बच्चों के साथ किस तरह की मेहनत करनी है या बच्चों को क्या समझ आ रहा है या क्या और समझने की ज़रूरत है।

इसी क्रम में इस मूल्यांकन का सबसे महत्वपूर्ण और ख़ूबसूरत पहलू यह है कि बच्चों की कापियाँ जाँचने के बाद हर शिक्षक अपनी कक्षा में बच्चों को उनकी कापियाँ देता है। उद्देश्य यह कि बच्‍चे ख़ुद भी अपना मूल्यांकन कर सकें और यह देख और समझ सकें कि उनको किसी प्रश्न में पूरे, आधे या कुछ भी अंक क्‍यों नहीं मिले। इसके लिए बच्चों को काफ़ी समय दिया जाता है।

शिक्षक देवीलाल ने एक कक्षा के बच्चों का मूल्यांकन किया था। उन्‍होंने मूल्यांकन के बाद बच्चों को जाँची हुई कापियाँ दीं, और कहा- कि अब सारे बच्‍चे ख़ुद से अपनी कापियाँ दुबारा जाँचें। ख़ुद से देखें और समझें कि उन्हें कितने नम्बर मिले हैं और क्‍यों?

लगभग पौन घण्‍टे तक 25 बच्चों ने अपनी उत्तर–पुस्तिकाओं का मूल्यांकन किया। साथ में बैठे दूसरे बच्चों की कापियों को भी देखा। कुछ बच्‍चे आपस में भी बात कर रहे थे।

इसके बाद देवीलाल ने बच्चों से पूछा– क्या आप सबने अपनी-अपनी कापियाँ देखीं?

बच्चों का जवाब और प्रतिक्रिया अलग–अलग आई जैसे कि –

कुछ बच्चों ने कुछ सवाल छोड़े थे।

कुछ बच्चों ने ऐसे प्रश्नों को छोड़ा था जिसमें 3-4 प्रश्न और थे, जैसे कि प्रश्न 1 में  1, 2, 3, 4, आदि।

शिक्षक ने बच्चों से प्रश्न पहचानने, उसकी समझ और हर प्रश्न पर थोड़ा–थोड़ा समय रुककर देखने की बात की।

उन्होंने पूछा– ऐसा क्‍यों हुआ, तो बच्चों का जवाब आया :

  • प्रश्नपत्र जल्दी पूरा करना था
  • ये प्रश्न हम देख नहीं पाए
  • सारे प्रश्न करने थे घण्‍टी लगने से पहले, नहीं तो छूट जाते
  • भूख लगी थी आदि।

इन सारे जवाबों को सुनने के बाद शिक्षक ने पहले प्रश्न से लेकर आख़ि‍री प्रश्न तक सबसे क्रमवार तरीक़े से बात की। जैसे कि –

हिन्‍दी प्रश्नपत्र का पहला सवाल था, जिसमें पहाड़ का चित्र बना था और चित्र देखकर आकृति का नाम लिखना था। सभी बच्चों ने अलग–अलग जवाब लिखे थे। जैसे कि, किसी ने जवाब में लिखा था – पहाड़, पाहाड, पाहड़, पहाड़े।

इस क्रम में टीचर ने उन सभी बच्चों को बुलाया और उसका कारण जानने की कोशिश की, कि उसने वह शब्द क्या सोचकर लिखे थे? सबसे पहले जिस बच्चे को बुलाया गया था उसने लिखा था ‘पाहाड़’।

जब टीचर ने बच्चों से पूछा कि क्या ये सही हैं? 35 % बच्चों ने हाथ उठाकर कहा कि ‘हाँ सही लिखा है।’

टीचर ने इस पर बच्चों से कहा कि एक बार इस बनी हुई आकृति का नाम ज़ोर से बोलो। बच्चों ने तेज़ आवाज़ में एक स्वर में बोला – पाहाड़।

इसका मुख्य कारण यह था कि बच्चे अपनी बोलचाल की भाषा में पाहाड़ ही बोलते हैं और इसलिए उन्होंने पाहाड़ ही लिखा। साथ ही उसे सही भी मान रहे थे।

जबकि कुछ और बच्चे उठकर आए उन्होंने लिखा ‘पहाड़े’ उनका कहना था कि चित्र में पहाड़ कुछ ऐसे बना था जिसमें पहाड़ की एक से ज्‍़यादा चोटियाँ बनी थीं इसलिए वो बहुवचन में आता है।

जिन बच्चों ने पहाड लिखा था उनमे ड और ड़ को लेकर भ्रम था।

हिन्‍दी का ही अगला प्रश्न था, जहाँ गिलास का चित्र बना था और गि _स और खाली जगह को पूरा करना था।

मगर कुछ बच्चों ने वहाँ पर अलग–अलग जवाब लिखे थे। जब बच्चों से इस पर बात की गई तो कुछ बच्चों ने कहा –

वे चित्र देखकर ही समझ गए थे कि चित्र का नाम लिखना होगा इसलिए गिलास पूरा शब्द लिख डाला चित्र के नीचे।

कुछ बच्चों ने चित्र के सामने ‘कप’ लिखा ।

सबसे अच्छी बात यह थी कि इस पूरी प्रक्रिया में बच्चे बड़े आराम से यह बता रहे थे उनका कौन-सा सवाल सही है, कहाँ ग़लत लिखा है और क्या ग़लती की है?

इसकी वज़ह यह थी कि उन्हें शुरू से ही यह बताया गया था और बात की गई थी कि अगर कांसेप्ट समझ आ गया तो हमेशा पूरे नम्बर मिलेंगे कहीं भी।

ऐसा ही एक प्रश्न था जहाँ उन्हें चित्र देखकर नाम लिखना था, और चित्र था एक फूल का।

कुछ बच्चों ने वहाँ पर फल लिखा। कुछ ने किसी फल का नाम लिखा।

इस पर टीचर ने उन बच्चों और पूरे समूह से बात की, कि फूल और फल में क्या अन्‍तर होता है? आकार, उपयोग आदि के बारे में ताकि बच्चे फ़र्क़ समझ सकें। बातचीत के क्रम में बच्चों ने कहा कि फूल का मतलब है – माला, फूल से बनता है फल, फूल नहीं आएगा तो फल नहीं लगेगा, कुछ फूल ऐसे होते हैं जिसमें सिर्फ़ फूल होते हैं – कमल, गुलाब आदि।

अगला प्रश्न था, जहाँ बच्चों को क्रम में शब्दों को जमाना था। जैसे कि –

है खट्टा होता संतरा

होता है कंगन गोल

भरा है पानी बाल्टी में आदि।

जब बच्चों से पूछा गया कि इसका सही जवाब क्या है? और किस-किस ने सही जवाब लिखा है तो 5 बच्चों ने कहा कि उनका लिखा जवाब ग़लत है क्योंकि,

है खट्टा होता संतरा

कुछ बच्चों ने प्रश्न को जैसा लिखा था वैसा ही उतार दिया था।

कुछ बच्चों ने लिखा- ‘संतरा है खट्टा होता’

खट्टा संतरा होता है।

शिक्षक ने बच्चों से इन सारे जवाबों पर बात की। फिर यह भी शेयर किया कि सही जवाब जैसे, ‘संतरा खट्टा होता है’, ‘बाल्टी में पानी भरा है’ सही क्‍यों हैं। जिसके मुख्य बिन्‍दु इस प्रकार हैं :

पूर्ण विराम हमेशा बात ख़त्‍म होने के बाद ही लगता है।

हिन्‍दी भाषा में वाक्य बनाते समय व्याकरण की दृष्टि से पहले ‘विषय’ आता है और उसके बाद उसकी विशेषता आती है। इसलिए ‘संतरा खट्टा होता है’ यह वाक्‍य सही माना जाएगा।

पूर्ण विराम यह बताता है कि बात या वाक्‍य पूरा हो गया है (कुछ बच्चों ने वाक्य बनाने के बाद पूर्ण विराम नहीं लगाया था।

भरा है पानी बाल्टी में

बच्चों ने इसे कुछ इस तरह सही किया,

पानी में बाल्टी भरा है

बाल्टी में पानी भरा है

पानी बाल्टी में भरा है

इस प्रश्न के साथ शिक्षक ने बच्चों से वाक्य पढ़वाए और पूछा, कि इसे पढ़ते वक़्त बोलने में कैसा लग रहा है?

उन्होंने बच्चों से इस विषय पर बात की कि अगर कोई पूछे कि पानी किसमें भरा है तो जवाब क्या होगा?

बच्चों ने बताया कि ‘बाल्टी’।

शिक्षक ने इस जवाब को सही बताते हुए कहा, कि बाल्टी में पानी भरा है और पानी बाल्टी में भरा है, यह दोनों ही जवाब सही माने जाएँगे।

गोल कंगन होता है

बच्चों ने इसे कुछ इस तरह सही क्रम में लिखा था कि,

गोल कंगन होता है

कंगन गोल होता है

होता है कंगन गोल

शिक्षक ने इन जवाबों पर बात करते हुए कहा कि देखने में गोल कंगन होता है, यह वाक्य सही है लेकिन देखना होगा कि गोल क्या है? गोल तो ‘कंगन’ हैं तो वाक्य में जो विषय है, नाम है वह पहले लिखा जाएगा और उसकी विशेषता उसके बाद।

इसके बाद अगले प्रश्न पर बात हुई जहाँ वस्तुओं के नाम पढ़कर उनके आकार और रंग के बारे में अलग–अलग डिब्बों में लिखना था। इस प्रश्न में कई सारी वस्तुओं के नाम लिखे थे जैसे आलू, रस्सी आदि।

बच्चों ने आलू की आकृति तो गोल, बेलनाकर लिखी और रंग में पीला, भूरा और सफ़ेद लिखा। शिक्षक ने जब कारण पूछा तो बच्चों ने बताया कि आलू काटने के बाद सफ़ेद दिखता है।

इस पर दूसरे बच्चों ने कहा कि ये जवाब ग़लत है क्योंकि प्रश्न में ये पूछा गया कि ‘रंग कैसा है न कि ये कि आलू का रंग काटने के पहले या बाद में कैसा है।

इसके बाद मात्राओं की बात की गई, जैसे कि सफ़ेद और सपैत लिखा था। भूरा और भूरे को ही बूरा लिखा था। इस पर टीचर ने उनसे पूछा कि यदि आप बुरा – लिखोगे तो इसका क्या मतलब होगा या क्या मतलब होता है इसका?

एक बच्चे ने बताया, इसका मतलब है कि कुछ बुरा लग जाना, या कोई बात ख़राब लग जाती है। जैसे कि जब कोई डाँटता है, मारता है, कुछ ख़राब बोलता है तब बुरा लगता है।

इस दौरान एक दूसरे बच्चे ने कहा कि हाँ यदि कालू (उस बच्चे) को इसका मतलब मालूम होता तो वो भूरा ही लिखता।

सबकी इस बात पर सहमति और समझ बनी कि ‘हम जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते भी हैं अक्सर। इसलिए जो लिखना है उसका चित्र हमारे दिमाग़ में बनने लगता है और अगर हम कुछ समय सोचें या लिखने से पहले बोलें तो ग़लत नहीं होगा। जैसे कि ‘किसी व्यक्ति, दोस्त का नाम जब भी हम लेते हैं तो सबसे पहले उसका चित्र दिमाग़ में आ जाता है। दिमाग़ हर चीज़ का चित्र बना लेता है।

इसलिए, शब्दों को पढ़ते रहना और उसका चित्र दिमाग़ में बैठाते रहना अच्छा होता है। पढ़ते जाओ और कुछ समय उसके चित्र, आकृति पर बिताना चाहिए। ताकि उच्चारण की ग़लती से लिखने में ग़लती न हो।

कुछ बच्चों ने इसी तरह के सवाल का जवाब ऐसे भी दिया था जहाँ उन्होंने गाजर के रंग को लाल,पीला लिखा।

इस पर बात होने पर यह मालूम चला कि जिस बच्ची ने यह लिखा था उसे रंगों की पहचान में दिक्‍़क़त थी। वह पीले रंग को लाल कहती थी।

इस पर पीले रंग के ऊपर कई उदाहरणों के जरिए बात की गई जैसे कि सब्जी में पड़ने वाली हल्दी का रंग कैसा होता है आदि।

मूली और गाजर एक ही हैं या अलग? तो कुछ बच्चों ने कहा कि दोनों एक ही हैं, फिर बच्चों के उस समूह में बाक़ी बच्चों से कहा गया कि क्या वे बता सकते हैं कि दोनों में क्या फ़र्क़ होता है और किस तरह का फ़र्क़ होता है। बच्चों के समूह ने बहुत ही समझदारी के साथ इस पर आपस में बात की। जैसे दोनों के स्वाद में क्या फ़र्क़ होता है, दोनों के पत्ते के आकार, उनका उपयोग, उनसे बनने वाली चीज़ों के बारे में आदि।

इसी तरह जलेबी के भी आकार और रंग पर कुछ बच्चों के जवाब अलग थे। वज़ह कि उन्होंने पहले जलेबी नहीं देखी थी।

सवाल जैसे कि सूरज वाले प्रश्न में भी बच्चों ने सूरज का आकार गोल लिखा। मगर रंग के बारे में – लाल, सफ़ेद, पीला, भूरा, मागी लाल लिखा। अलग-अलग समय में उन्होंने कई बार सूरज के रंगों को बदला हुआ देखा है उसके आधार पर भी बच्चों के अपने जवाब और तर्क थे जैसे कि किसी ने उगते हुए सूरज का रंग लिखा, तो किसी ने दोपहर के वक़्त का जिक्र किया, किसी ने सूरज को चाँद समझकर उसका रंग लिखा। इससे यह मालूम चला कि बच्चों के साथ सूरज और चाँद के बारे में बात करने की ज़रूरत है। उस समय इस बात के मद्देनज़र उनसे यह सवाल पूछा गया कि-

दिन और रात क्‍यों होते हैं?

दिन में हम जो रौशनी देखते हैं वो रात में आसमान से मिलने वाली रौशनी से कैसे अलग है?

सूरज को हम और किस-किस नाम से बुलाते हैं?

चाँद को किन नामों से जानते हैं हम सब?

जब चाँद और सूरज के बहुत सारे नामों के बारे में चर्चा हो रही थी तब एक बच्चे ने सवाल पूछा कि मेरा तो एक ही नाम है तो सूरज और चाँद के इतने सारे नाम क्‍यों हैं?

इस बात पर काफ़ी चर्चा हुई कि जैसे वे पहाड़ को और किन नामों से जानते हैं, या पानी को कैसे और पानी बोला जाता है, आपस में हमारी बोल–चाल में किस तरह का फ़र्क़ है? और किसी चीज़ का नाम होने से ही चीज़ की पहचान कैसे बनती है आदि।

टीचर ने उनको यह भी बताया कि जैसे-जैसे आप आगे पढ़ते जाओगे, लोगों से मिलते जाओगे आप चीज़ों के और भी नामों को सुनोगे, जानकारी मिलेगी।

बच्चों से टीचर ने प्रश्न का क्या मतलब होता है, इस पर बात की। उन्होंने चर्चा की कि प्रश्न का मतलब होता है कि वह आपको कुछ निर्देश दे रहे हैं, बता रहे हैं कि आपको आख़‍िर क्या करना है? प्रश्न एक ही होता है मगर उसके जवाब देने के और लिखने के तरीक़े अलग–अलग होते हैं।

हिन्‍दी के ही प्रश्नपत्र में अगला प्रश्न था – चित्र देखकर नीचे लिखे सवालों का जवाब दीजिए। चित्र में बच्चे थे, झूला था, बच्चा झूले पर बैठा था। उसके प्रश्नों में से एक प्रश्न था कि चित्र में क्या हो रहा है।

बच्चों ने जो जवाब लिखे वे थे कि ;

चित्र में बच्चे झूला झूल रहे हैं

चित्र में बच्चे हँस रहे हैं

चित्र में एक बच्चा झूल रहा है और दो बच्चे खड़े हैं।

प्रश्नपत्र में कुछ प्रश्न ऐसे थे जहाँ दो प्रश्न जुड़े थे जैसे कि, क्या तुम्हें खेलना पसन्‍द है? तुम कौन–कौन-से खेल पसन्‍द करते हो?

कुछ बच्चों ने अपने जवाब में, उन्हें कौन–कौन-से खेल पसन्‍द हैं इसका उत्तर लिखा था, न कि क्या उन्हें खेलना पसन्‍द है इसका।

बात करने पर समझ आया कि बच्चे प्रश्न-वाचक, पूर्ण विराम चिन्ह को समझ नहीं पाते और कई बार वे 2 प्रश्नों को एक ही मान लेते हैं।

बच्चों ने ‘उन्हें कौन-सा खेल पसन्‍द है’ का जवाब लिखते समय सिर्फ़ खेलों के नाम ही लिखे। जबकि कुछ बच्चों ने इस तरह लिखा कि, मुझे कबड्डी खेलना पसन्‍द है। या मुझे सितोलिया, क्रिकेट खेलना पसन्‍द है।

इस पर भी कुछ बच्चों ने आपस में बात की, कि प्रश्न का उत्तर पूरे वाक्य में ही होना ज़रूरी है और यह भी ध्यान देना ज़रूरी है कि उत्तर लिखते समय मुझे और हमको का प्रयोग किस तरह किया जा रहा है। क्योंकि जब हम प्रश्न को देखते हैं, ‘तुम्हें कौन-सा खेल पसन्‍द है?’ ऐसे पूछा गया है। तो जवाब में ‘मुझे यह खेल पसन्‍द है’ लिखना सही है न कि हमको यह खेल पसन्‍द है यह लिखा जाना। क्‍योंकि प्रश्न एक व्यक्ति से पूछा जा रहा है।

स्थानीय भाषा को हिन्‍दी भाषा से जोड़ना ताकि जो भी कॉपी जाँच रहे हैं वे समझ सकें। और जहाँ पर भी बच्चों ने अपनी स्थानीय भाषा में जवाब लिखा था वहाँ पर उन्हें पूरे नम्बर दिए गए।

इसी तरह गणित के प्रश्नपत्र पर भी हर सवाल पर बात की गई। गणित में अधिकतर बच्चों ने सवालों को सही तरीक़े से हल किया था मगर फिर भी कुछ प्रश्न थे जिस पर बच्चों से बात की गई।

जैसे कि, एक प्रश्न था कि चित्र में बने बड़े आकार की वस्तुओं पर गोला लगाओ। चित्र में उन्हीं वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया था जिनके आकार वास्तव में बड़े और छोटे होते हैं। एक-दूसरे से सम्‍बन्धित चित्र थे, उदाहरण के लिएबाल्टी–गिलास, साँप–छिपकली, बैट–बाल आदि।

कुछ बच्चों ने चित्र पर गोला लगाने के बजाय बड़े आकार वाली वस्तु का नाम लिखा। जब उनसे पूछा गया कि किसको–किसको सवाल नहीं समझ आया तो उन चार बच्चों ने हाथ खड़े किए जिन्होंने या तो प्रश्न हल नहीं किए, या जिन्हें आधे अंक मिले थे उस सवाल में, या जिसे लगा कि उसने ग़लत किया है।

उन्होंने इसकी वज़ह बताई कि उनको समझ नहीं आया कि आखि़र करना क्या है?

और थोड़ा वक़्त बिताने के बाद उन्होंने कहा कि उन्होंने सवाल ठीक से नहीं पढ़ा और चित्र देखकर उन्हें ऐसा लगा कि चित्र का नाम ही लिखना होगा।

इसी तरह अगले प्रश्‍न में बॉक्स में अलग–अलग जानवर बने हुए थे। नीचे लिखा था ऊपर दिए गए बक्से में जानवरों को गिनो और उनकी संख्या लिखो।

उत्तर लिखने वाले स्थान पर क्रम से उन जानवरों का एक–एक चित्र भी बना हुआ था जिसकी गिनती करके उनको लिखना था जैसे कि ,

  1. खरगोश
  2. शेर
  3. बिल्ली
  4. हंस आदि।

बहुत से बच्चों ने सवाल हल करते समय बॉक्स के अन्दर दिए गए चित्रों के साथ–साथ उत्तर लिखने वाले स्थान पर बने हुए चित्र को भी गिनकर उत्तर बनाया।

एक और सवाल था जहाँ कि बड़ी संख्या को देखकर गोला लगाना था।

प्रश्न कुछ इस प्रकार था –

बड़ी संख्या पर गोला लगाईए –

(1) 50, 28      (2) 38, 40          (3) 273, 237        (4) 199, 189 आदि।

कुछ बच्चों ने सारे विकल्प में सबसे बड़ी संख्या जैसे 273 पर गोला लगाया था, क्योंकि उन्हें सबसे बड़ी संख्या वही लगी।

इन सारे अलग–अलग प्रश्नों पर बात करते हुए आख़‍िर में बच्चों के साथ इस बात पर एक सफल चर्चा हो सकी कि प्रश्नपत्र को ध्यान से पढ़कर हल करना ज़रूरी है। इस प्रकार हम कैसे अपने सवालों को सही तरीक़े से हल कर सकते हैं। बच्चों को कक्षा में पढ़ते-पढ़ाते समय किए गए अवलोकन, बच्चों के साथ काम करते हुए टीचर्स को हर पहलु पर इनपुट, फीडबैक उनके द्वारा पढ़ाए जा रहे बच्चों के सीखने को लेकर, आपस में टीचर एक-दूसरे को कैसे मदद पहुँचा सकते हैं आदि पर मदद करते हैं। बच्‍चे प्रश्न क्यों छोड़ते हैं इस विषय में उपरोक्त बिन्‍दुओं के साथ यह समझ बनी कि कई बार बच्चों के दैनिक जीवन में प्रयोग में आने वाले शब्द व उच्चारण में काफ़ी फ़र्क़ होता है, जिसके कारण जब वह अपनी उच्चारण शैली में जवाब देते हैं या लिखते हैं तो कई बार उन्हें मात्रा के दोष के हिसाब से देखा जाता है, कि बच्चे को लिखने और मात्रा ज्ञान में काम करने की ज़रूरत है। कई बार कई जगहों पर उसे पूरी तरह ग़लत मान लिया जाता है तो कई बार आधा सही और आधा ग़लत। इसके साथ ही बच्चों के रंग की पहचान, रंगों के नामों की पहचान व स्‍पष्‍टता में भी उतार-चढाव की स्थिति एक वज़ह बनती है। अलग-अलग बच्चों की अपनी कल्पनाशीलता व विषयवस्‍तु में सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया, तरीक़ा उनके दैनिक जीवन व वातावरण के आधार पर भी जुड़े होते हैं। कई बार ऐसे भी देखा जाता है कि कुछ प्रश्न, कुछ बताए गए या पूछे गए उदाहरण बच्चों ने शायद पहले कभी न ही देखे, न ही सुने हों। ऐसे में उससे जुड़ पाने में उनको दिक्‍़क़त का सामना करना पड़ता है और नतीजतन उससे उनकी दूरी बनती है। कई बार यह भी समझ आता है कि प्रश्नपत्रों में शामिल की गई विषयवस्तु में यह बहुत ही ध्यान रखने वाली बात होनी चाहिए, जब भी हम बच्चे का मूल्‍यांकन कर रहे हों। हर बच्चे के प्रश्न व जवाब देने का तरीक़ा अलग होता है, हम यह समझते हैं और जानते भी हैं। मगर साथ ही इस बात को याद रखना बहुत ज़रूरी मालूम होता है कि हर प्रश्न को देखने, समझने का दृष्टिकोण बच्चों का अपना दृष्टिकोण है। साथ ही कई बार इसलिए भी प्रश्न रह जाते हैं कि प्रश्नवाचक चिन्ह और पूर्णविराम जैसे चिन्हों की समझ और उनके होने नहीं होने का क्या मतलब है, बच्‍चे यह नहीं समझते हैं। ऐसे में इन सारी बातों व अनुभवों के आधार पर स्‍पष्‍ट है कि यदि बच्चों को प्रश्न समझ में आ जाए व उनके पूर्व ज्ञान, सन्दर्भ को शिक्षक / मूल्‍यांकनकर्ता समझे व बातचीत करें, तो बच्चों के सीखने की प्रक्रिया तो रुचिकर बनेगी ही साथ ही बच्चा भी अपना पूरा प्रयास करेगा जहाँ वह अपने द्वारा अर्जित की हुई समझ और ज्ञान को सामने रख सके।

आभार : यह लेख सेवा मन्दिर,उदयपुर में शिक्षा इकाई में प्रोग्राम इंचार्ज के पद पर कार्य करने के दौरान लिखा गया। विशेष आभार उन सभी शिक्षकों और देवीलाल जी का जो लगातार समुदाय और बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए प्रयासरत हैं। अपनी सभी संस्थाओं के साथ सेवा मन्दिर को विशेष आभार जहाँ पर मुझे अपनी इस यात्रा को सतत रूप से बेहतर करने का अवसर और मार्गदर्शन मिलता रहा।

यशस्वी द्विवेदी  वर्त्तमान में स्वाध्याय सेंटर फॉर यूथ में प्रोग्राम हेड-ऑपरेशन के तौर पर कार्यरत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में गुजरात, बिहार और राजस्थान के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों (गाँव, कस्बों, शहरी इलाकों) में 10 साल से ज्यादा वर्षों से कार्यरत। बच्चों /शिक्षकों के साथ काम करने में और अवलोकन आधारित लेखन में विशेष रुचि। उन्‍होंने इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्‍नातकोत्‍तर उपाधि ली है। अज़ीम प्रेमजी विश्‍वविद्यालय से डेवलपमेंट लीडरशिप में डिप्लोमा प्राप्‍त किया है।)

सम्‍पादन : राजेश उत्‍साही

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1 comment on “बच्चे परीक्षा में प्रश्नपत्र में प्रश्न क्यों छोड़ते हैं ? एक आवासीय शिविर के अनुभव

  1. Mangal ram says:

    बच्चों को जब तक संदर्भ से जोड़कर शिक्षा नहीं दी जाएगी तो बच्चों को ये समस्याएं आना स्वाभाविक है।

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