Teachers for Inclusive Society

कठिन है रहगुज़र…

यहाँ सम्‍भावनाओं से भरे ऐसे ही एक शासकीय विद्यालय के शिक्षकों और उनकी कोशिशों को लेकर कुछ चर्चा की जा रही है। यह तमाम नाउम्मीदियों के बीच उम्मीद की चिंगारी जीवित रखने वाले चन्‍द उदाहरणों में शामिल हो सकते हैं।

Print Friendly, PDF & Email

ठिन है रहगुज़र…

राजेश यादव

शासकीय एमएस झिरनिया छापरी स्कूल
ब्लॉक: बैरसिया
पंचायत/ग्राम/नगर पालिका/निगम/नगर: झिरनिया
ग्रामीण/शहरी: ग्रामीण
स्कूल श्रेणी: केवल प्राथमिक
स्कूल प्रबंधन: शिक्षा विभाग
स्कूल का प्रकार: सह-शैक्षिक

कई बार चर्चा के दौरान शिक्षक साथी ढाई-तीन दशक पहले के सरकारी स्कूलों की बातें याद दिलाते हैं, ‘हमने भी तो सरकारी स्कूल में पढ़ाई की थी। उस वक्‍़त सरकारी स्कूलों के प्रति सकारात्मक माहौल था। तब निजी स्कूल न के बराबर थे। थोड़े-बहुत थे भी तो दूर के क़स्बों या शहरों में। गार्जियन्स का सरकारी स्कूलों और मास्टरों के प्रति सम्मान था। मास्टरों को ग़ैर-शैक्षणिक कामों और आवश्यकता से अधिक मोनिटरिंग से आज़ाद रखा जाता था। स्कूल हर गाँव-मोहल्ले में नहीं होते थे लेकिन जहाँ होते थे वहाँ बच्चों की पर्याप्त संख्या होती थी। प्राथमिक विद्यालयों में कक्षावार और माध्यमिक तथा ऊपर के विद्यालयों में विषयवार शिक्षकों की उपलब्धता थी। स्कूल में स्टाफ़ की संख्या पर्याप्त होने से कक्षा में पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनता था। उन्हीं स्कूलों में पढ़कर बहुत से बच्चे बड़ी-बड़ी नौकरियों में गए। हम भी तो यहाँ तक आ पाए।’

फिर वे वर्तमान परिदृश्य पर आते हैं और अपनी तमाम परेशानियों को सामने रखने लगते हैं, ‘आज हर एक मोहल्ले या छोटे-से-छोटे गाँव में भी सरकारी स्कूल खुल गए हैं। सभी तरह के स्कूलों में बच्चों का नामांकन प्रतिशत देखा जाए तो विगत एक से डेढ़ दशक में काफ़ी बढ़ गया है। बावज़ूद इसके; सरकारी स्कूलों का वह पुराना माहौल जाता रहा। सरकारी स्कूल और शिक्षकों के प्रति लोगों के मन में सम्मान कम होता गया। समर्थ अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना पसन्‍द करते हैं और केवल कमज़ोर तबक़े के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ने आते हैं। ऐसे में सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के समर्थन में पूरे जन समुदाय को आना चाहिए क्योंकि यहाँ शिक्षा और शिक्षार्थी के बीच व्यवसायिक सम्बन्ध नहीं बल्कि मुफ़्त शिक्षा का प्रावधान है। लेकिन जन समुदाय की छोड़िए, ख़ुद शासन व्यवस्था भी सरकारी स्कूलों की क्षमता को कम करने का काम कर रही है। शिक्षकों को कई तरह के ग़ैर-शैक्षणिक कामों में उलझाए हुए है। कई शिक्षकों को कक्षा में अपना पूरा समय देने की बजाए बहुत-सी जानकारियाँ जुटाने और रजिस्टर भरने में लगाना पड़ता है। बहुत-से स्कूलों में तो शिक्षकों की ज़रूरी संख्या तक नहीं है। विषयवार शिक्षकों की भी भारी कमी है। इसलिए कई स्कूलों में बच्चों की संख्या बहुत कम हो गई है और कई स्कूल तो इसी कारण बन्‍द हो गए हैं। उस पर सरकारी नीति यह कि धड़ल्ले से निजी स्कूलों को मान्यता दी जा रही है। बल्कि पच्चीस फ़ीसदी ग़रीब तबक़े के बच्चों का एडमिशन भी सरकारी ख़र्च पर निजी स्कूलों में करवाया जा रहा है। सुधार के नाम पर तमाम प्रयोग सरकारी स्कूलों पर हो रहे हैं। ऐसे में इस व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़ा अकेला अध्यापक आख़िर कर क्या सकता है? उसके पास सिर्फ़ अपनी नौकरी करने के अलावा क्या ऑप्शन बचता है? यह अध्यापक को आत्मविश्वास से डिगाने वाली बात है।’

इन तमाम टिप्पणियों से सहमति या असहमति के सवाल से परे इस बात को भी स्वीकारना होगा कि कभी भी हताश होकर हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठा जा सकता। हमारे पास विकल्पों की कमी नहीं है।

इस सबके बीच कुछ ऐसे साथी भी हैं जो ऐसी तमाम चुनौतियों के आगे तनकर खड़े हैं। वे किसी तरह से घिसटते हुए चलने में यक़ीन नहीं रखते। वे अपनी ऊर्जा को अँधेरे चीरने की कोशिश में खर्च रहे हैं। परिणामतः एक दायरे में उन्हें लोगों का विश्वास हासिल हुआ है। उनके स्‍कूल और कक्षा में बच्चों के सीखने-समझने का स्तर सम्मानजनक बना हुआ है। उनका अपने व्यवसायिक जीवन को लेकर आत्मविश्वास बेहतर हुआ है। इससे भी बढ़कर उनके चेहरे पर तसल्ली के भाव इकट्ठे हुए हैं जो किसी बैंक-बैलेंस से कमतर नहीं।

यहाँ सम्‍भावनाओं से भरे ऐसे ही एक शासकीय विद्यालय के शिक्षकों और उनकी कोशिशों को लेकर कुछ चर्चा की जा रही है। यह तमाम नाउम्मीदियों के बीच उम्मीद की चिंगारी जीवित रखने वाले चन्‍द उदाहरणों में शामिल हो सकते हैं।

यह विद्यालय भोपाल ज़िले के बैरसिया ब्लॉक में बैरसिया से लगभग 27 किलोमीटर दूर सीहोर और राजगढ़ ज़िले के सीमा पर स्थित झिरनिया छापरी गाँव में है। गाँव तक पहुँचने के लिए बैरसिया-नरसिंहगढ़ मुख्य मार्ग से लगभग बारह किलोमीटर की दूरी ग्रामीण सड़क पर स्वयं के वाहन से तय करनी पड़ती है। गाँव की कुल आबादी एक हज़ार के आस-पास है। ज्‍़यादातर रहवासी छोटे-मंझोले किसान या मज़दूर वर्ग के हैं। लगभग सभी के बच्चे गाँव के शासकीय विद्यालय में पढ़ते हैं। हालाँकि 15-16 किलोमीटर दूर के बाज़ार वाले गाँव रुनाहा से निजी स्कूलों की चार बसें इस गाँव में भी आती हैं। लेकिन उनमें प्रायः वही बच्चे जाते हैं जो 9 वीं से 12 वीं कक्षाओं में पढ़ते हैं। इनमें माध्यमिक कक्षाओं के केवल तीन या चार बच्चे ही शामिल हैं। सुखद आश्चर्य होता है कि इस गाँव में 25 प्रतिशत वाले कोटे के लिए ग्रामीणों में कोई रूचि नहीं है। वे अपने गाँव के सरकारी विद्यालय को ज्‍़यादा उपयुक्त मानते हैं। अभी पिछले सत्र में ही कुछ बच्चे जो एक निजी स्कूल में पढ़ने जाने लगे थे, गाँव के विद्यालय में वापस आ गए। वर्तमान सत्र 2022-23 में विद्यालय की प्राथमिक कक्षाओं में लगभग 100 बच्चे और माध्यमिक में लगभग 60 बच्चों का नामांकन है। प्राथमिक में तीन और माध्यमिक विद्यालय में दो शिक्षक नियुक्त हैं। दो प्राथमिक शिक्षक 1995-96 से नियुक्त हैं। तब विद्यालय केवल प्राथमिक स्तर तक था। लगभग एक दशक पहले विद्यालय माध्यमिक स्तर तक हो गया है। बाकी तीन शिक्षकों की नियुक्ति माध्यमिक विद्यालय बनने के बाद हुई।

कोविड से पहले वाले सत्र में इस विद्यालय की दो कक्षाओं, तीसरी और पाँचवीं, के बच्चों का हिन्‍दी भाषा और गणित विषयों में एक आकलन किया गया था। इस दौरान बच्चों से पहली बार बातचीत और कुछ शैक्षिक गतिविधियाँ करने का मौक़ा मिला। तब बच्चों के सीखने के स्तर ने काफ़ी प्रभावित किया था। विभिन्न विषयों में उनकी गति बेहतर तो थी ही; एक अपरिचित व्यक्ति के साथ उनका बेझिझक और वाचाल होना भी काफ़ी अपीलिंग था। बाद में आकलन के परिणाम ने भी इस बात को ठोस आधार दिया। इस बात ने एक दूरस्थ गाँव के इस विद्यालय के प्रति रूचि पैदा की। जब लॉकडाउन के बाद स्कूल दोबारा खुले तो इस विद्यालय में कई बार जाना हो पाया। विभिन्न कक्षाओं में भाषा और गणित विषय की गतिविधियों में शामिल होने का अनुभव मिला। शिक्षकों से चर्चा करने और विद्यालय के परिवेश को समझने का अवसर मिला। यह समझने का अवसर मिला कि विद्यालय में सकारात्मक माहौल के लिए कौन-सी वज़हें काम कर रही हैं।

विद्यालय की पहली ख़ासियत यह है कि इसके चार शिक्षक इसी गाँव में रहते हैं और पाँचवें शिक्षक 7-8 किलोमीटर दूर के गाँव से आते हैं। गाँव में रहने वाले शिक्षकों में से एक इसी गाँव के हैं। उनके बच्चे इसी स्कूल से पढ़कर आगे गए हैं। बाकी तीनों का परिवार सीहोर, भोपाल और डिंडौरी में रहता है। कुछ वर्ष पहले तक भोपाल और सीहोर वाले परिवार भी इसी गाँव में रहते थे। उनके बच्चों की कक्षा आठवीं तक की पढ़ाई इसी विद्यालय में हुई है। बाद में बच्चों की आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें यह गाँव छोड़ना पड़ा। ये दोनों शिक्षक हफ़्ते में एक बार घर का चक्कर लगा आते हैं। इनका कहना है कि वे डेली अप-डाउन भी कर सकते हैं, लेकिन तब थकावट की वजह से पूरी ऊर्जा शिक्षण गतिविधियों में लगाना असम्भव-सा हो जाएगा। डिंडौरी वाले शिक्षक महीने-दो-महीने में घर जाते हैं।

विद्यालय की यह पहली ख़ासियत जिसमें अधिकतर शिक्षक या तो विद्यालय परिसर या उसी गाँव में रहते हैं; अन्य तमाम ख़ासियतों की नींव तैयार करती है। बच्चों और गार्जियंस का इस स्कूल को लेकर जो पहला भरोसा बना है वह इसके समय पर खुलने और समय पर बन्‍द होने को लेकर है। यह भरोसा अन्य सभी तरह के भरोसों के लिए बुनियाद कायम करता है। साथ ही उन्होंने शिक्षकों के बच्चों को भी इसी विद्यालय में पढ़कर निकलते देखा है। यह बात भी भरोसे को मज़बूत करती है और वे अपने बच्चों को अन्यत्र भेजने के बारे में नहीं सोचते।

शिक्षक बताते हैं कि उन्हें सुबह साढ़े नौ-पौने दस तक तैयार हो जाना पड़ता है क्योंकि लगभग पौने दस बजे से ही बच्चे स्कूल में आने लग जाते हैं। सुबह की प्रार्थना से पहले लगभग आध-पौन घण्‍टा बच्‍चों को खेलने का मौक़ा मिल जाता है। स्कूल में कुछ खेल सामग्रियाँ हैं। बच्चों को इन सामग्रियों का स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल करने की आज़ादी है। स्कूल में नियत समय पर प्रार्थना, राष्ट्रगान या अन्य गतिविधियाँ सम्‍पन्न होती हैं इसलिए अभिभावक भी अपने बच्चों को समय से स्कूल भेजते हैं।

स्कूल में बच्चों की उपस्थिति का औसत अमूमन नब्बे प्रतिशत से ऊपर ही रहता है। अगर कोई त्यौहार या उत्सव हो तो उपस्थिति पर कुछ असर ज़रूर पड़ता है। हालाँकि ऐसा कभी-कभार कुछ विशेष दिनों में होता है। जो थोड़े बच्चे ज्‍़यादा ग़ैरहाज़िर रहते हैं उनमें कुछ मज़दूर वर्ग के बच्चे हैं जिनके माता-पिता दोनों ही काम के सिलसिले में घर से बाहर चले जाते हैं। घर के काम और छोटे भाई-बहनों की देख-रेख की ज़िम्मेदारी इन बच्चों को सम्‍हालनी पड़ती है। इस वज़ह से वे नियमित विद्यालय नहीं आ पाते। लेकिन ज्‍़यादातर बच्चे नियमित उपस्थित होते हैं।

बच्चों की संख्या के अनुपात में शिक्षकों की संख्या इस स्कूल में भी कम है। भरपाई के लिए स्कूल को एक अतिथि शिक्षक सत्र के बीच में मिले हैं जो माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाते हैं। प्राथमिक के तीनों शिक्षकों में एक के ज़िम्मे पहली और दूसरी कक्षा, दूसरे के ज़िम्मे तीसरी और चौथी तो तीसरे के ज़िम्मे पाँचवीं कक्षा है। माध्यमिक में तीनों शिक्षक विषयवार कक्षाओं को संचालित करते हैं। पहली- दूसरी कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक जो इसी गाँव के रहने वाले हैं; बीएलओ का कार्यभार भी सम्‍हालते हैं। इसके लिए वे स्कूल के बाद का समय निकालते हैं। वे कक्षा में तभी अनुपस्थित होते हैं जब उन्हें ब्लॉक स्तर की मीटिंग या किसी कार्य से बुलाया जाता है। दूसरे शिक्षक भी अपनी-अपनी कक्षाओं में मिलते हैं। पहली और दूसरी कक्षा एक बड़े कमरे में संयुक्त रूप से लगती है लेकिन बाकी कक्षाएँ अलग-अलग कमरों में लगती हैं। हालाँकि तीसरी और चौथी कक्षा को एक शिक्षक सम्‍हालते हैं; लेकिन कक्षाओं को संयुक्त करने की बजाए बारी-बारी से शैक्षणिक गतिविधियों में व्यस्त रखते हैं।

विद्यालय की दूसरी महत्त्वपूर्ण ख़ासियत है कि शिक्षकों के ग्रामवासियों से बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं। शिक्षक-अभिभावक मीटिंग के औपचारिक अवसरों के अलावा स्कूल समय के बाद भी उनका मिलना-जुलना अन्य गाँव वालों से होता रहता है। ऐसे में अभिभावक अपने बच्चों को लेकर जो भी बातें शिक्षकों से करना चाहते हैं उसे अनौपचारिक रूप में भी आसानी से कह पाते हैं। शिक्षक भी अभिभावकों का ध्यान उनकी ज़िम्मेवारियों के प्रति दिलाते रहते हैं। चूँकि पूरे गाँव के बच्चे इसी विद्यालय में पढ़ते हैं, सो ग्रामीण भी स्कूल और शिक्षकों के प्रति अपना सहयोगपूर्ण रवैया रखते हैं। अभी पिछले दिसम्बर में स्कूल और अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के साथियों ने एक बाल मेले का आयोजन किया था। विद्यालय की ओर से सभी बच्चों के अभिभावकों, जनशिक्षा केन्‍द्र के अन्‍य विद्यालयों के शिक्षकों और दूसरे पदाधिकारियों को बाल मेला में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था। अन्‍य शिक्षक तो दोपहर बाद पहुँचे लेकिन गाँव वालों ने शुरुआत से आख़िर तक मेले की व्यवस्था में अपना सहयोग दिया। विभिन्न गतिविधियों में मन से बच्चों के साथ शामिल हुए और ज़रूरी सामानों में से कुछ की व्यवस्था भी की। स्कूल के बगल में एक घर है जिसमें घर के सामने ग्रीन शेडनेट को चाहरदीवारी की तरह लगाया गया था। एक शिक्षक के आग्रह पर घर के मालिक ने नेट को खोलकर स्कूल प्रांगण में लगवा दिया। नेट पर बच्चों ने अपने रचनात्मक कार्यों (चित्रों, कहानियों, बाल अख़बार आदि को) प्रदर्शित किया। विद्यालय ने उस दिन विद्यार्थियों के साथ-साथ सभी अभिभावकों और दूसरे विद्यालयों के आगंतुकों के लिए दोपहर बाद भोजन की व्यवस्था की थी। इस आयोजन में अन्य विद्यालयों के चालीस-पैंतालिस शिक्षकों के अलावा अस्सी से नब्बे की संख्या में अभिभावक भी शामिल हुए। यह पूरा आयोजन शाम पाँच बजे तक चला जिसमें अभिभावकों ने सक्रिय सहभागिता की। दिन की आख़िरी सभा में शिक्षकों की बातें सुनी और अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं।

विद्यालय की तीसरी ख़ासियत है कि यहाँ के शिक्षक कुछ नया सीखने के प्रति अभिरुचि रखते हैं।
सभी शिक्षक ज़मीनी जुड़ाव वाले हैं। उनका मानना है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। ख़ासतौर पर शिक्षक समुदाय को तो पेशेवर रूप से भी कुछ नया सीखने की कोशिश करते रहना चाहिए। इससे अध्यापन में निखार आएगा। यह बात व्यवहारिक धरातल पर तब और ज्‍़यादा पुख्‍़ता हुई जब ‘हम होंगे कामयाब’ कार्यक्रम के तहत जनशिक्षा केन्द्र पर हुए विभिन्न शैक्षिक संवादों में विद्यालय के शिक्षकों की सक्रिय भागीदारी देखने को मिली। इस विद्यालय के लगभग सभी शिक्षक एक या इससे अधिक बार शैक्षिक संवादों में शामिल हुए। उसमें रूचि के साथ भाग लिया। ज़रूरी सवाल और सुझाव रखे। यही नहीं; पूरे सत्र के दौरान विद्यालय के एक माध्यमिक शिक्षक ने गणित विषय के स्रोत व्यक्ति की भूमिका भी बख़ूबी निभाई। शैक्षिक संवादों के लिए आयोजित पूर्व तैयारी बैठक में उन्होंने बिना गैप किए सहभागिता की और चीज़ों को समझकर शैक्षिक संवादों में बेहतर तरीक़े से बातों को रखा भी। जब कभी भी इन शिक्षकों के साथ कुछ साझी कक्षाएँ संचालित की गईं, शिक्षकों ने खुले दिल से सहयोग किया और कुछ नई शिक्षण प्रक्रियाओं को अपनी शिक्षण पद्धति में शामिल करने की कोशिश की।

शैक्षणिक नज़रिए को लेकर भी विद्यालय में काफ़ी सकारात्मक माहौल है। बच्चे शिक्षकों के साथ घुले-मिले हैं। शिक्षक भी बच्चों के प्रति नर्म और सहयोगात्मक हैं। उनका मानना है कि बच्चों को स्कूल में मजा आना चाहिए। यह सबसे ज़रूरी है। उनके और अध्यापक के बीच दोस्ताना व्यवहार होना चाहिए। उन्हें पीटने या डराने से वह बात नहीं बनती जो प्यार-दुलार और बार-बार प्रोत्साहन देने से बन सकती है। कक्षा चौथी की एक बालिका को उसके घर वाले तक भी कम बुद्धि का समझकर उससे पढ़ने-लिखने को लेकर नाउम्मीद-से हो गए थे। लेकिन कक्षा शिक्षक ने उसे प्रोत्साहित करके और विभिन्न गतिविधियों में सबसे पहले अवसर देकर पढ़ने-लिखने में उसकी अभिरुचि जगा दी है। अब वह बिना झिझक के हर बातचीत और गतिविधि में शामिल होती है। कुछ शब्दों को लिख-पढ़ लेती है और कुछ सवालों पर मुखर हो पाती है। सबसे बड़ी बात है कि वह अपने शिक्षक ही नहीं, बाहर से आए किसी दूसरे व्यक्ति के सामने भी नहीं झिझकती। अपनी कॉपी पर जो भी ग़लत-सही लिखती या कुछ चित्र वगैरह बनाती है उसे दिखाने को उत्सुक रहती है। जब कभी बोर्ड पर कुछ लिखने के लिए उसे बुलाया जाता है तो उत्साह से बोर्ड पर लिखने की कोशिश करती है। चर्चा के दौरान शिक्षकों की तरफ से यह बात मुख्य रूप से आती है कि चाहे कितनी भी दिक्‍़क़ते हों लेकिन हमें यह देखना होगा कि जो बच्चे हमारे स्कूलों में आते हैं वे अपनी ज़िन्‍दगी का सबसे महत्त्वपूर्ण वक्‍़त विद्यालय में बिताते हैं। हज़ार तरह की बातों के बावजूद एक शिक्षक को इस बात पर ज्‍़यादा ध्यान देना चाहिए कि वह बच्चों के समय की कद्र कर पाए।

वैसे देखा जाए तो विद्यालय में कुछ भी ऐसा असाधारण नहीं होता जो दूसरे विद्यालयों या शिक्षकों के लिए असाध्य हो। न ही यहाँ के शिक्षक ही बिल्कुल असाधारण करने की सायास कोशिश करते हुए दीखते हैं। कई बार स्कूल के बाहर की परीक्षा ड्यूटियों, प्रशिक्षणों या शैक्षिक संवादों जैसी तमाम व्यस्तताओं से इन्हें भी खीझ और शिकायत होती है। फिर भी, यह उनकी स्वाभाविक दिनचर्या और विद्यालय का वर्षों से बना माहौल है जो स्कूल के हक़ में खड़ा हो जाता है। हालाँकि शिक्षकों की सिखलाई, शैक्षणिक योग्यताएँ, उनकी शिक्षाशास्त्रीय समझ और ज्‍़यादातर कक्षा प्रक्रियाएँ आम शिक्षकों जैसी पारम्‍परिक ही हैं। लेकिन उनमें जो अलग है और जिसके कारण उनका विद्यालय अलहदा हो जाता है; वह है उनकी व्यक्तिगत अभिप्रेरणा और टीम की आपसी सामंजस्य वाली क्षमता। पारम्परिक शिक्षण पद्धतियों के साथ-साथ कुछ ज़रूरी आधुनिक शिक्षण पद्धतियों के प्रति उनकी स्वीकार्यता और उनके अनुरूप ख़ुद को बदलने की कोशिश। निराश करने वाले तमाम व्यवस्थागत कारणों के समानान्‍तर पेशेवर ज़िम्मेदारियों को महसूसने की आदत और स्वाभाविक रूप से बनी कुछ बेहतर परिस्थितियों को बनाए रखने की इच्छा शक्ति। और, इन तमाम ख़ासियतों की रीढ़रज्जु बनता है विद्यालय के समय से खुलने, बन्‍द होने और शिक्षकों की कक्षा में सक्रिय उपस्थिति का विश्वास।

अब उक्त उदाहरण भले ही शिक्षा व्यवस्था की तमाम झंझावतों के बरअक़्स एक अदना-सा हैसियत रखने वाला हो, लेकिन एक तरह से अँधेरे में जुगनुओं सी उजास करने की कोशिश ज़रूर करता है। साथ ही, इस सम्भावना को जन्म देता है कि व्यवस्थागत तमाम लूप होलों के बावजूद ज़मीनी स्तर पर खड़े व्यक्ति के पास कुछ हैसियत तो होती है जिससे कुछ हलचल पैदा की जा सके। ख़ुद के स्तर पर एक नज़ीर बनाई जा सके जिसे सामने रखकर कुछ दूसरे लोग भी अपनी-अपनी नज़ीरें खड़ी कर सकें। दीगर बात है कि रास्ता बहुत कठिन है और दिन-ब-दिन इस पर गड्ढों की संख्या भी बढ़ती जा रही; लेकिन रुकना तो कोई विकल्प नहीं। ज़रूरत है कि हम एक नागरिक के रूप में अपनी प्राथमिकता तय करें। तमाम नकारात्मकता को दरकिनार कर आगे बढ़ने की दिली कोशिश करें। यथासम्‍भव तमाम गड्ढों को पाटते हुए चलते रहने से ज्‍़यादा मुफ़ीद विकल्प कोई और न होगा। हो सकता है इसी तरह के कुछ हौसला बुलन्‍द क़दमों के साथ कभी काफ़िले भी जुड़ें और इतिहास-भूगोल बदल जाए।
कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो
~अहमद फ़राज़

लेखक: राजेश यादव, अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन, भोपाल
सम्‍पादन : राजेश उत्‍साही ,  अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ,  भोपाल             

Featured photo by Chelsea Aaron on Unsplash                                                 
Print Friendly, PDF & Email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to top