Personal Reflections on Practice

एक सफ़र आनंदशाला के साथ

इन सारी प्रक्रियाओं के बाद जो सबसे बड़ी सीख मुझे मिली वह यह है कि शिक्षकों के क्षमता वर्धन के साथ-साथ उनका दृष्टि निर्माण बहुत ही आवश्यक है । यदि हमें शिक्षा में एक बड़े बदलाव के बारे में सोच बना रहें हैं तो शिक्षकों के विज़न के निर्माण पर कार्य करना बहुत बेहतर रणनीति हो सकती है। यह पहल हमने कई विद्यालयों में करके देखी है, जिसका परिणाम बेहतर रहा है।

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एक सफ़र आनंदशाला के साथ

लेख: शाही दीपक
संपादन: गुरबचन सिंह

परिचय

आज से 8 साल पहले मैं क्वेस्ट अलायन्स के साथ एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में  सहायक / सहजकर्ता के रूप में जुड़ा। इस दौरान मेरा मुख्य कार्य जन शिक्षण संस्थान के युवाओं में जीवन कौशल निखार लाने के लिए उनके प्रशिक्षकों का सहयोग करना था। फिर उसके बाद पटना के 10 चुने हुए  उच्च विद्यालयों के नवमी एवं दसवीं कक्षा के छात्रों के करियर मार्गदर्शन के लिए उनके शिक्षकों  ज़रूरी सहयोग करना था। लेकिन मेरे जीवन का परिवर्तनकाल का प्रारंभ तब हुआ जब मैं स्कूल छोड़कर जाने वाले छात्रों को रोकने के लिए एक शोध कार्यक्रम का हिस्सा बना। मैं शुरुआती दौर में इस कार्यक्रम के साथ मात्र 6 माह जुड़ा था लेकिन यह 6 माह का यह समय बहुत कुछ सीखने का वक्त था । मुझे इस दौरान उस शोध टीम का हिस्सा बनने का मौका मिला जो टीम यह रणनीति बनाने में लगी थी कि ऐसा क्या किया जाए जिससे बच्चे विद्यालय में रुकें और विद्यालय के साथ जुड़ें। निःसंदेह आज से आठ वर्ष पहले बच्चों को विद्यालय में रोकना एक बहुत बड़ी समस्या थी । उन कारणों को समझने का मौका मिला कि क्यों इस मुद्दे पर कार्य करने की आवश्यकता है और यदि यह नहीं होगा तो दीर्घकालिक रूप में इसका समाज के ऊपर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उस दौरान कार्यक्रम का प्रारूप बनाया जा रहा था और मैं भी उस टीम का हिस्सा था। इसका हिस्सा होना मेरे लिए बहुत ही अहम था । अहम इसीलिए था कि न केवल बिहार वरन देश के विभिन्न हिस्सों से शिक्षा से जुड़े विशेषज्ञों ने इसमें भाग लिया था और ये सभी बच्चों को विद्यालय में रोकने व जोड़ने के लिए कार्यक्रम का प्रारूप बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। फिर मैं शुरुआती दौर में कार्यक्रम क्रियान्वयन करने वाली टीम का हिस्सा बना, खासकर उस टीम का जो इस कार्यक्रम के लिए शिक्षकों एवं टीम के प्रशिक्षण का कार्य कर रही थी। इन सारे अनुभव ने मुझे शिक्षा को बारीकी से समझने और सोचने के लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभायी।

वैसे शुरुआती काल में मैं इस टीम में केवल 6 महीने ही था लेकिन यह 6 माह अन्दर से झकझोरने के लिए काफी थे। उसके बाद मैं फिर से इस टीम का हिस्सा तब बना जब यह शोध कार्यक्रम अपने अंतिम पड़ाव पर था और यह कार्यक्रम एक परियोजना से कार्यक्रम के रूप में परिणत हो रहा था । यह दौर अपने आप में बहुत बड़ी सीख देने वाला था। एक प्रकार से हर स्तर पर बदलाव का दौर था। यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी, संसाधन कम थे और सहभागियों की अपेक्षाएं अधिक थीं। इसके अलावा कार्यक्रम को लेकर भी बहुत सारे सवाल उठ रहे थे। मसलन;

  • कार्यक्रम का स्वरूप क्या होगा ?
  • हम किन उद्देश्यों के लिए कार्य करेंगे ?
  • सहभागी कौन-कौन होंगे ?
  • कार्यक्रम का क्रियान्वयन हम किस स्तर पर जाकर करेंगे ?
  • क्या शिक्षा विभाग हमें कार्यक्रम क्रियान्वयन की अनुमति देगा ?

इन सवालों का जवाब ढूँढ़ना अपने आप में बहुत रोचक भी था और कठिन भी। लेकिन इन सवालों के जवाब को ढूँढ़ने की जो प्रक्रिया थी वह काफी झकझोरने वाली थी। इन सवालों के जवाब तलाशने की प्रक्रिया में हम सभी के मार्गदर्शक की भूमिका गगन भाई  निभा रहे थे। उन्होंने सोचने का वो हर मौका दिया जो एक कार्यक्रम के प्रारूप को तैयार करने वाले को मिलना चाहिए। उन्होंने उन हर पहलुओं पर सोचने के लिए मजबूर किया जो इस क्षेत्र में कार्य करने वाले में संवेदनशीलता लाने के लिए ज़रूरी है । यह प्रक्रिया न केवल व्यावसायिक रूप से बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी आपको सुदृढ़ बनाती है। निःसंदेह यह न केवल कार्यक्रम के बदलाव का दौर था बल्कि मेरे जीवन का भी बदलाव का दौर था ।

आनंदशाला कार्यक्रम और मेरी भूमिका  

जब आनंदशाला कार्यक्रम के प्रारूप पर चर्चा हो रही थी तो इस विषय पर बहुत बात हुई कि एक ऐसे कार्यक्रम क्या स्वरूप हो, जो शिक्षा के जरिए शिक्षा विभाग की कार्यप्रणाली में स्थायी बदलाव ला सके ताकि इस बदलाव बच्चों के लिए विद्यालय में मजे के साथ सीखने की जगह बन सके। इसी क्रम में यह तय किया गया कि हम समस्तीपुर के सभी 20 प्रखंडों में कार्य करेंगे और हमारी टीम शिक्षा विभाग के ही व्यक्तियों के सहयोग से पूर्व संकेत प्रणाली के माध्यम से 1000 मध्य विद्यालय में छात्रों को विद्यालय से जोड़ने और उन्हें रोकने के लिए कार्य करेंगे। मैं इस कार्यक्रम में कार्यक्रम समन्वयक की भूमिका निभा रहा था साथ ही अन्य कार्यक्रम अधिकारियों की तरह 4 प्रखंडों में कार्यक्रम क्रियान्वयन की जिम्मेदारी भी मेरे पास थी। इस कार्यक्रम में जो सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका थी वह थी कार्यक्रम के टूलकिट निर्माण और सहभागी प्रशिक्षण के लिए समन्वयन और फिर सहभागियों का प्रशिक्षण । यह जिम्मेवारियाँ  बहुत कुछ सीखने में मदद कर रही थीं । इसमें जो सबसे अहम सीख थी कि शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी स्तर पर आने समस्याओं और कार्यक्रम क्रियान्वयन में आने वाली परेशानियाँ और उनके व्यवहारिक समाधान को समझना। इस दौरान मुझे अपनी भूमिकाओं से शिक्षा की चुनौतियों को बहुत नजदीक से व बारीकी से देखने-समझने का मौका मिला। इससे पता चला कि शिक्षा के क्षेत्र में किन-किन स्तरों पर किस प्रकार की चुनौतियाँ है। एक जो बड़ी चुनौती थी कि अपने अधीन वाले प्रखंड में कुछ ऐसा करना है जो अन्य प्रखंड के लिए कार्य कर रही  टीम के सदस्यों के लिए मार्गदर्शन का कार्य कर सके ।

विद्यालय और विभाग के स्तर पर मिलने वाली कुछ मुख्य चुनौतियाँ इस प्रकार थीं;

  • शिक्षकों और विभाग के बीच शिक्षा के विषय पर संवाद हीनता
  • शिक्षकों में उत्साह की कमी
  • शिक्षकों में नवाचार के प्रति उत्साह का अभाव
  • समुदाय और विद्यालय के बीच बढ़ती खाई
  • बच्चों की शिक्षकों के साथ जुड़ाव में कमी
  • छात्रों का विद्यालय के प्रति असंतोष
  • शिक्षकों के बीच समन्वय की कमी

स्वाभाविक है इन सब कारणों से विद्यालय में शैक्षिक वातावरण का अभाव था और इन विषयों पर शिक्षकों के साथ संवाद स्थापित करना चुनौतियों से भरा था । शिक्षकों से बच्चों के घर जाकर उन्हें समझने की बात करना अपने आप में शिक्षकों का कोपभाजक बनना था । यह हमें भी हतोत्साहित करने का पर्याप्त कारण था।

नवाचार विद्यालयों का चयन

विद्यालय की समस्याओं से निजात पाने और शिक्षा से जुड़े मुद्दे पर संवाद की पहल हो इसीलिए शुरुआत में 6 प्रखंडों में से एक–एक इच्छुक विद्यालय का चयन किया गया और यह निर्णय लिया गया की इन विद्यालयों में शैक्षणिक माहौल बनाया जाए व नवाचार की शुरुआत की जाए । हुआ भी कुछ वैसा ही, कुछ नयी-नयी गतिविधियों की शुरुआत की गयी। कुछ शिक्षकों ने उत्साह दिखाया और फिर विद्यालयों में एक नई ऊर्जा के संचार का माहौल बना । इन विद्यालयों से  बच्चों का जुड़ाव हो एवं उनके अन्दर आवश्यक जीवन कौशल का विकास हो इसके लिए चेतना सत्र, बाल संसद और विद्यालय की अंतिम घंटी को प्रभावी बनाने के लिए कार्य योजनाएं बनाई गईं। चेतना सत्र में उत्साहवर्धक गतिविधियाँ जैसे  सामुदायिक समाचार, प्रश्नोत्तरी, कहानी चुटकुले आदि सुनाए जाने लगे। बाल संसद, विद्यालय की गतिविधियों में सहभागिता एवं अंतिम घंटी में विषय आधारित कहानी, चुटकुले, कविता, लघु नाटक, ड्राइंग आदि का आयोजन किया जाने लगा। इससे सदस्यों में भी आत्मविश्वास बढ़ने लगा, नई दिशा भी में सोच आगे बढ़ने लगी।

छात्र सहभागिता से विद्यालय में बना आनंदमय वातावरण

विद्यालय में शिक्षकों के साथ बढ़ते संवाद का ही परिणाम था कि यह सोचा जा सकता था कि अब विद्यालय में और क्या नया किया जा सकता है, जिससे विद्यालय का वातावरण बेहतर हो और जिले में भी इसका परिणाम दिखायी देता  हो। इसी दौरान एक शिक्षक जिन्हें संगीत और कला में रुचि थी, उनके साथ मिलकर ‘बाल संसद’ के गठन की प्रक्रिया को छात्रों के लिए मनोरंजक बनाया गया और चुनाव की प्रक्रिया में बिल्कुल वही तरीके अपनाए गए जैसे आम चुनाव किया जाता है । इसका उद्देश्य था कि बच्चों में नेतृत्व कौशल, निर्णय लेने की क्षमता व भाषा कौशल आदि का विकास हो । बच्चों ने काफी उत्साहपूर्वक इस प्रक्रिया में हिस्सा लिया और देखते ही देखते विद्यालय के अन्य शिक्षक भी आगे बढ़ने लगे। इसके उपरान्त छात्र,  विद्यालय से जुड़े कार्यों जैसे पुस्तकालय संचालन, बागवानी, मध्याह्न भोजन व अन्य कार्यों में एक दूसरे का सहयोग, विद्यालय की सफाई, चेतना सत्र का संचालन आदि कार्य स्वयं करने लगे फलस्वरूप  विद्यालय में आनंदमय माहौल का वातावरण बनने लगा। इस पहल से शिक्षकों  का बोझ कम हुआ, शिक्षक और छात्रों के बीच लगाव बढ़ने लगा एवं शिक्षकों के बीच संवाद के अवसर बनने लगे। यह प्रक्रिया मेरे लिए बहुत ही आत्मविश्वास बढ़ाने वाली थी। यह सब कुछ केवल इसी विद्यालय तक सीमित नहीं था वरन अन्य विद्यालय भी इसका अनुकरण करने लगे और इसका बहुत बेहतर परिणाम देखने को मिला । इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ और शिक्षक भी कुछ नया सोचने लगे ।

‘आनंदशाला शिक्षा रत्न पुरस्कार’ से बना शैक्षणिक माहौल

जब हम शिक्षकों के बीच होते थे तो सामान्यतः चर्चा में यह निकल कर आता था कि शिक्षक के अच्छे प्रयासों की कोई सराहना नहीं करता है ना ही उनके कार्यों की कोई पहचान है। जब हम टीम के बीच होते थे तो अन्य सदस्यों से भी यही फीडबैक निकल कर आता था। टीम के सभी सदस्यों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि ‘आनंदशाला शिक्षा रत्न पुरस्कार’ की शुरुआत की जाए। जिले के उस वक्त के जिलाधिकारी भी इस बात के पक्षधर थे कि शिक्षकों को उनके अच्छे प्रयासों के लिए सराहना मिलनी चहिये। इसी क्रम में 5 सितम्बर 2016 को विधिवत रूप से आनंदशाला शिक्षा रत्न पुरस्कार’  की शुरुआत हुई और अगले साल जुलाई 2017 में 10 अच्छे प्रयासों का चयन कर उन्हें सम्मानित किया गया। परिणामस्वरूप यह पुरस्कार जिले में शिक्षकों के बीच चर्चा का विषय बना और शैक्षणिक माहौल की शुरूआत हुई। यह सारे विषय न केवल शिक्षकों के लिए प्रेरणा का स्रोत थे बल्कि हमारे लिए भी थे, क्योंकि ये सारी गतिविधियाँ हमारे लिए भी शिक्षकों के बीच जाने और उनसे संवाद स्थापित करने के लिए बेहतर जरिया थे ।

एक विद्यालय का पूर्ण विकास

इस दौरान मुझे एक और महत्त्वपूर्ण परियोजना को क्रियान्वित करने का अवसर मिला, जो कि वाकई चुनौतियों से भरा था, लेकिन पूर्व के अपने कुछ अनुभव से मुझे खुद में आत्मविश्वास भी था। यह आशा भी थी कि इस परियोजना से कुछ नया सीखने को मिलेगा। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि किसी विषय की सम्पूर्णता  के साथ समझ तभी हो सकती है जब आप उस कार्य का सम्पूर्ण तरीके से अनुभव प्राप्त करें। समस्तीपुर जिले के ही कल्यानपुर प्रखंड के एक सुदूर इलाके में एक विद्यालय मध्य विद्यालय कलौन्जर में काम करने का मौका मिला । चुनौतियों की बात करें तो यह विद्यालय समस्तीपुर के अंतिम छोर पर है और बागमती नदी से बिलकुल सटा हुआ है । यदि थोड़ी ठीक-ठाक बारिश हुई तो विद्यालय बंद हो जाता है, विद्यालय तक पहुँचने का भी कोई रास्ता नहीं रह जाता है । आप समझ सकते हैं जब कोई विद्यालय इस तरह पहुँच से कट जाए तो शिक्षा प्रशासन का उस पर कितना ध्यान रहता होगा। इस कारण हर शिक्षक का विद्यालय आने का अपना ही समय था। शिक्षा विभाग यह मानकर बैठ चुका  था कि इस विद्यालय में कुछ भी नहीं किया जा सकता है । गाँव के लोगों में भी कोई आशा नहीं थी । वही लोग अपने बच्चों को विद्यालय में भेज रहे थे जो बिल्कुल ही लाचार थे या फिर जो मान चुके थे कि शिक्षा से मानव विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है।

वर्तमान परिवेश में शिक्षा को बेहतर ढंग से समझने और बदलाव के लिए उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए मेरे लिए इससे अच्छी मिसाल नहीं हो सकती थी। इस विद्यालय में हम लोगों ने भवन निर्माण से लेकर वातावरण निर्माण करने का लक्ष्य तय किया। अपेक्षा के अनुरूप चुनौतियाँ भी सामने आयीं, शुरुआती दिन चुनौतियों से भरे थे। हमारे वहाँ कार्य करने से जो सबसे ज्यादा परेशान थे, वो थे शिक्षक, क्योंकि वे अपनी पहले से चल रही दिनचर्या में बदलाव लाने के लिए इच्छुक नहीं थे। गाँव के लोगों को हमारी बातों पर भरोसा तो नहीं था लेकिन अपेक्षाएं थी। कुछ-कुछ कार्य होता गया, समुदाय की अपेक्षाएं भरोसे में बदलने लगीं, बच्चे का सहयोग मिलने लगा, एक–दो शिक्षकों की रुचि बढ़ने लगी। इस पूरी अगुआई में आनंद्शाला के साथियों का भरपूर सहयोग मिला। इस पूरी  प्रक्रिया में जो मुझे सीख मिली वह थी- ‘विद्यालय को बेहतर बनाना है तो शिक्षकों के  क्षमता वर्धन के साथ-साथ शिक्षा में बच्चे एवं समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।’

इस पूरी प्रक्रिया ने शिक्षा के बदलाव के प्रति मेरे विश्वास को और भी मजबूती प्रदान की।

शिक्षकों का दृष्टि निर्माण

इन सारी प्रक्रियाओं के बाद जो सबसे बड़ी सीख मुझे मिली वह यह है कि शिक्षकों  के क्षमता वर्धन के साथ-साथ उनका दृष्टि निर्माण बहुत ही आवश्यक है । यदि हमें शिक्षा में एक बड़े बदलाव के बारे में सोच बना रहें हैं तो शिक्षकों के विज़न के निर्माण पर कार्य करना बहुत बेहतर रणनीति हो सकती है। यह पहल हमने कई विद्यालयों में करके देखी है, जिसका परिणाम बेहतर रहा है।

मैं एक सहजकर्ता के रूप में

फिलहाल मैं आनंदशाला कार्यक्रम से जुड़ी विषयवस्तु के निर्माण और यहाँ सहजकर्ता की भूमिका निभा रहा हूँ। और खुद को एक सहजकर्ता के रूप में सहज महसूस करता हूँ, यह इसीलिए संभव हो पाया है क्योंकि मुझे शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों के साथ बहुत ही नजदीक से कार्य करने का मौका मिला है और इसी के साथ चुनौतियों को समझने और उसका समाधान करने का अनुभव मिला है।

लेखक

शाही दीपक, समन्वयक, विषयवस्तु निर्माण व प्रशिक्षण, क्वेस्ट अलायन्स-आनंदशाला

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