विद्यालय में बदलाव के लिए ज़रूरी है बच्चों, शिक्षक और समुदाय के बीच संवाद
लेख: शाहिद
संपादन: गुरबचन सिंह
क्वेस्ट अलायन्स में मेरी यात्रा 1 नवम्बर 2012 को शुरू हुई। मैं मूल रूप से उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। इससे पहले मैंने आई.सी.एम.आर. एवं डब्ल्यू.एच.ओ. में चार साल तक स्वास्थ्य से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों में काम किया था। मेरे लिए शिक्षा का यह क्षेत्र बिलकुल नया था ।मुझे आज भी याद हैं SDPPP (School Dropout Prevention Pilot Program ) कार्यक्रम के दौरान एक सहयोगी के साथ विद्यालय भ्रमण किया। मैं उस विद्यालय में उसके खुलने से लेकर बंद होने तक उपस्थिति रहा। मैं इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ था कि विद्यालय का संचालन किस तरह होता हैं। सुबह के चेतना सत्र में उस दिन 25 से 30 प्रतिशत बच्चे ही शामिल हुए थे, परन्तु बच्चों का चेतना सत्र के बाद भी विद्यालय में आना जारी रहा। उस विद्यालय में कुल छह शिक्षक थे। उस दिन दो शिक्षक विद्यालय के दस्तावेजीकरण में लगे थे और 4 शिक्षक विद्यालय की कक्षाओं को सँभालने में। यह एक मध्य विद्यालय था जिसमें वर्ग 1 से 8 वीं तक की कक्षाएँ आयोजित होती हैं । उस दिन बच्चों की उपस्थिति मध्याह्न भोजन के समय तक लगभग 50-51 प्रतिशत हो गयी थी, जो कि एक औसत उपस्थिति थी । मध्याह्न भोजन के बाद विद्यालय में उस दिन छुट्टी कर दी गयी । सरकारी विद्यालयों के बारे में जिस तरह की कहानियाँ पहले सुन चुके थे ।उसका यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिल रहा था ।
आनंदशाला कार्यक्रम की शुरुआत
स्कूल ड्रॉपआउट प्रिवेंशन पायलट प्रोग्राम (SDPPP) के तीन वर्षों के शोध कार्य के दौरान सरकारी विद्यालयों में चल रही शिक्षा की जमीनी हकीकत का ज्ञान हुआ। बच्चों, शिक्षक एवं समुदाय के बारे में प्रत्येक स्तर पर एक समझ यह बनी कि बच्चों का विद्यालय से जुड़ाव , ठहराव एवं सीखने के स्तर में बदलाव क्यों नहीं हो रहा हैं । शोध के इन तीन वर्षो के अनुभव के आधार पर ‘आनंदशाला कार्यक्रम’ की शुरुआत हुई।
इस कार्यक्रम को लेकर क्वेस्ट परिवार के सभी लोग बहुत उत्साहित थे । आनंदशाला का लक्ष्य छात्रों की स्वतंत्र और रचनात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता विकास व स्कूल के प्रति अपनत्व की भावना बढ़ाने के लिए शिक्षकों का क्षमतावर्धन करना था, साथ ही बच्चों, शिक्षकों और अभिभावकों के बीच मजबूत सम्बन्ध बनाना था । आनंदशाला के प्रभावी इस्तेमाल से यह कार्यक्रम शिक्षकों को एकीकृत रूप से विद्यार्थियों को समझने और उनकी सहायता करने में सक्षम बनाता हैं। यह एक उत्तरदायी शिक्षा प्रणाली हैं जो व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य निर्माण के लिए शिक्षा व्यवस्था के साथ मिलकर काम करती हैं ताकि बच्चे स्कूल में ठहरें ,जुड़ें और सीखें।
विद्यालय भ्रमण के दौरान समस्याओं की पहचान करना
मैंने आनंदशाला कार्यक्रम के दौरान बच्चों, शिक्षकों ,प्रधानाध्यापक ,विद्यालय शिक्षा समिति ,संकुल समन्वयक , प्रखंड साधन सेवी , प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी एवं समुदाय के साथ जुड़कर कर कार्य किया। इससे चीजों को प्रत्येक स्तर पर बहुत नजदीक से देखने, समझने एवं कार्य करने का मौका मिला ।एक बात जो मुझे यहाँ विशेष रूप से नजर आई, वह थी पर प्रत्येक स्तर पर संवाद की कमी थी। कार्य के दौरान मैं बच्चों, शिक्षकों एवं समुदाय के लोगों की बातों को ध्यानपूर्वक सुनता ,ज़्यादा से ज़्यादा उनको बोलने का मौका देता, फिर उनकी किसी एक सकारात्मक बात को चुनते हुए उसपर काम करने के लिए बात करता था। इससे तरीके से उनमें अपनत्व का भाव आने लगा, जिसने हमारे कार्य को आसान बनाया। कार्य के दौरान कुछ ऐसे शिक्षकों से भी मिलना हुआ जो विद्यालयों में नवाचार करने की सोचते थे। उनसे बातचीत के दौरान यह नजर भी आता कि हमें ऐसा काम करना चाहिए जिससे बच्चों को ख़ुशी मिले और हमारा विद्यालय में आना सार्थक हो। कुछ इस उद्देश्य के लिए प्रयासरत भी थे कि बच्चे विद्यालय से रोजाना कुछ न कुछ सीख सकें एवं अपनी जिंदगी में तमाम बाधाओं को पार करके आगे बढ़ सकें। सरकारी विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक जानते हैं कि यहाँ आने वाले बच्चे ऐसे समुदाय व समाज से हैं जो अभावहीन हैं, वे न तो शिक्षा के महत्त्व को समझते हैं और न ही उनके पास इतने संसाधन हैं कि वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए उपलब्ध करा सकें ।
विद्यालयों में नवाचार
विद्यालयों में जाकर देखा कि वहाँ शिक्षकों के गुट बने हुए हैं । अगर कोई शिक्षक बच्चों के लिए कुछ नया करना चाहता है तब दूसरे शिक्षक उस पर तरह-तरह की टिप्पणी करने लगते हैं। जिससे वह हतोत्साहित हो जाता है। शिक्षक हमारे विद्यालय के आधार स्तम्भ होते हैं । शिक्षकों में सकारात्मक सोच बनाने के लिए मैंने उनके साथ मिलकर कार्य प्रारम्भ किया । बिक्रम पट्टी में एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय है जहाँ पर एक शिक्षिका नूतन कुमारी काम करती हैं । विद्यालय भ्रमण के दौरान जब इस स्कूल के शिक्षकों से बात होती तो नूतन कुमारी की सोच सभी से अलग मिलती। एक दिन मैंने इनके साथ अलग से बात की और इनकी सोच को जानने की कोशिश की। इस विद्यालय की सबसे बड़ी समस्या थी कि यहाँ मध्याह्न भोजन के बाद बहुत सारे बच्चे विद्यालय से चले जाते थे ।नूतन कुमारी हमेशा सोचती काश सभी बच्चे विद्यालय में आखिरी घंटी तक रुकें। जिससे इन बच्चों को सीखने के ज़्यादा मौके मिल सकें । इनकी जिज्ञासा को जानते हुए हमने इनसे विद्यालय की आखिरी घंटी को रोचक बनाने के लिए चर्चा की। कार्य के प्रारम्भ में इन्होंने बच्चों के सहयोग से एक गतिविधि बोर्ड का निर्माण कराया ,थीम के आधार पर गतिविधियां प्रारंभ हुईं । प्रत्येक दिन मध्याह्न भोजन के बाद बच्चे गतिविधि में भाग लेते और जो कुछ सृजित होता उन्हें गतिविधि बोर्ड पर लगाते। इससे बच्चों में उत्साह चरम पर था। देखते ही देखते दूसरे वर्गों के बच्चे भी अपने शिक्षकों से गतिविधि के लिए बोलने लगे। इस तरह से सभी वर्गों में गतिविधियाँ प्रारंभ हुई, जिससे विद्यालय में एक आनंददायी वातावरण का निर्माण हुआ। बच्चों में सीखने को लेकर ललक बढ़ी। पिछले वर्ष आनंदशाला के द्वारा ‘जिला स्तर पर आयोजित आनंदशाला गोष्ठी’ में अंतिम कक्षा के वर्ग संचालन के लिए इनके विद्यालय को ‘शिक्षा रत्न’ का पुरस्कार मिला। जिसने इस विद्यालय को जिलास्तर पर एक पहचान दी और दूसरों शिक्षकों को प्रेरणा देने का कार्य किया।
अगर मैं सिर्फ अपनी बात करूँ तो मुझे लगता हैं कि सरकारी विद्यालय बदलाव की असीम संभावनाओ का दूसरा नाम हैं। वहाँ काम करने और बच्चों व अभिभावकों का अपनापन पाने का जितना अवसर हैं उतना दूसरे किसी क्षेत्र में नहीं हैं। वहाँ छोटे-छोटे गाँव और कस्बों के बच्चों के सपने पल रहे होते हैं । जिनको वाकई मदद और मार्गदर्शन की जरूरत हैं ।सतत प्रोत्साहन और प्रेरणा की जरूरत हैं ताकि समय से पहले ही उनके सपनों के फूल मुरझाने की बजाय फिर खिल सकें। वे जीवंत, सक्रिय और जीवन की चुनौतियों को एक अवसर के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रतिबद्धता के भाव से भर उठें।
इस कार्यक्रम ने बिहार के समस्तीपुर जिले के 996 सरकारी मध्य विद्यालयों के माध्यम से 4.00 लाख से अधिक बच्चों को लाभान्वित किया। विद्यालयों में कार्य की शुरुआत सर्व प्रथम उन बच्चों को पहचानने की प्रक्रिया से की जाती हैं , जो आने वाले समय में विद्यालय छोड़ कर जा सकते हैं । जिससे समय रहते ऐसे बच्चो पर ध्यान दिया जा सके । चेतना सत्र को प्रभावशाली बनाने से लेकर बाल संसद का सशक्तिकरण एवं आखिरी घंटी को रोचक बनाने का कार्य किया गया । इन कार्यों के माध्यम से बच्चों के लिए विद्यालय में एक बेहतर माहौल का निर्माण हुआ और उनका विद्यालय से जुड़ाव सुनिश्चित किया जा सका।
चेंज प्रोजेक्ट के माध्यम से विद्यालय एवं समुदाय के बीच समन्वय
चेंज लीडर के साथ मिलकर चेंज प्रोजेक्ट के माध्यम से विद्यालय एवं समुदाय के बीच समन्वय स्थापित किया। समन्वय पर गहनता से कार्य प्रारंभ किया, यह कार्य अभी तक विद्यालयों के लिए एक सपने के समान समझा जाता था । समुदाय के वित्तीय सहयोग से विद्यालयों में कंप्यूटर , सिलाई मशीन , चेतना सत्र के लिए मंच , विद्यालय के लिए लाइब्रेरी का निर्माण कराया ।इस कार्य को देख कर उस प्रखंड के कई विद्यालयों ने अपने यहाँ भी चेंज प्रोजेक्ट की शुरुआत की । इन विद्यालयों में से अधिकतर विद्यालयों को आनंदशाला के वार्षिक उत्सव ‘आनंदशाला गोष्ठी’ में जिला स्तर पर पुरस्कृत किया गया।
एक बेहतर चीज जो निकलकर आई जिसे मैंने अपने कार्यों में आत्मसात किया कि विद्यालयों में स्थायी परिवर्तन के लिए समुदाय का सहयोग बहुत ही ज़रूरी हैं।
समस्याओं का समाधान खुद से खोजने का अवसर देना
मैंने एक सहजकर्ता के रूप में हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि किसी के साथ संवाद करते समय सामने वाले के साथ ‘सहज’ होना बहुत जरूरी है। आमतौर पर समाज के रोज़मर्रा के अनुभवों में हर कोई किसी तरह के मूल्यांकन या जजमेंटल विचार से खुद को बचाना चाहता है और यह स्वाभाविक भी है।
विद्यालय भ्रमण के दौरान मैंने इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि समस्या के समाधान के लिए सामने वाले को खुद से प्रयास करने का अवसर दिया। जहाँ पर उन्हें सपोर्ट की जरूरत हुई उन्हें दिया। इसके साथ ही साथी शिक्षकों से भी मदद लेने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे साथी शिक्षको में भी सकारात्मक मनोवृत्ति का विकास हुआ और वे भी उतने ही उत्साह के साथ साथी शिक्षकों को मदद करते। इस प्रक्रिया में जो भी समाधान सामने आए, शिक्षकों को उस समाधान को अपनाने या किसी अन्य समाधान की तलाश करने का विकल्प भी दिया।
इससे बहुत सारे विद्यालयों के साथ समुदाय के बेहतर सम्बन्ध स्थापित हुए। जिससे वे प्रत्येक स्तर पर विद्यालयों को सहयोग देने लगे, इससे विद्यालयों में बच्चो के लिए सुविधाएँ बढ़ने लगीं, फलस्वरूप बच्चों के लिए विद्यालय में बेहतर माहौल का निर्माण हुआ एवं जुड़ाव सुनिश्चित हो पाया। कार्यशालाओं के माध्यम से शिक्षकों में अपनी भूमिका को लेकर एक उत्तरदायित्व की भावना का निर्माण हुआ । जिससे वे बच्चों के साथ बेहतर सम्बन्ध स्थापित कर पाए।
संकुल समन्वयक जोकि चेंज लीडर भी थे, उनके साथ मिलकर विद्यालय में शिक्षकों एवं बाहर समुदाय के साथ काम किया गया। इसके जरिये विद्यालयों में किये जा रहे नवाचारों के लिए शिक्षकों को प्रोत्साहित करने एवं अच्छे अभ्यासों के लिए संकुल समन्वयकों के माध्यम से संकुल कार्यशाला में उन्हें सम्मानित किया गया । इससे अन्य शिक्षक भी उनसे प्रेरणा लेते, अच्छे अभ्यास को अपने यहाँ क्रियान्वित करते एवं समस्या आने पर समाधान के लिए हमें आमंत्रित करने लगे। संकुल कार्यशाला जो कि अभी तक निष्प्रभावी थी उसे प्रभावी बनाने के लिए संकुल समन्वयकों के साथ मिलकर योजनाबद्ध तरीके से एक माध्यम बनाया। जहाँ पर शिक्षकों के कौशल विकास या क्षमतावार्धन के लिए प्रशिक्षण आयोजित करना एवं एक सहजकर्ता के रूप में उनके साथ मिलकर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल होने की पहल की जाती । यहाँ एक दूसरे के प्रयास, चुनौतियों, अच्छे अभ्यास की चर्चा एवं अगले माह की रणनीतियां मिलकर तय की जातीं और आगे की दिशा निर्धारित की जाती । यह सभी कार्य संकुल कार्यशाला में से होने सुचारु रूप से होने लगे।
अंत में अपने अनुभव के आधार पर यह कहना चाहूँगा कि शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए ,जितना कार्य हमें विद्यालय में बच्चों , शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक के साथ करने की जरूरत होती हैं , उतने ही कार्य की जरूरत हमें अभिभावकों एवं समुदाय के साथ करने की भी जरूरत होती हैं। क्योंकि विद्यालय से पहले बच्चे का समाजीकरण, परिवार एवं समुदाय के माध्यम से ही होता हैं। अगर वे जागरूक हो जायेंगे तो वे बच्चों से उनकी पढाई से संबंधित वार्तालाप करेंगे, तब उनमें भी जिम्मेदारी का भाव उत्पन्न होगा |
मैं अंत में अपने 6 वर्षो के अनुभव के आधार पर यह कहना चाहूँगा कि बच्चे , विद्यालय एवं समुदाय के बीच जितना ज़्यादा ‘संवाद’ स्थापित होगा। विद्यालयों एवं बच्चों के व्यक्तित्व में बदलाव उतना ही प्रासंगिक होगा।
लेखक
शाहिद, कार्यक्रम संचालक, क्वेस्ट अलायन्स-आनंदशाला
यह आनंदशाला कार्यक्रम सर्वप्रथम तो बहुत ही बधाई का पात्र है । समाज में सुदूर देहाती क्षेत्रों में अवस्थित सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के साथ सबसे ज्यादा समस्या बच्चों का स्कूल में पूरे दिन ना रुक पाना ,बच्चों का नियमित रूप से स्कूल में ना पाना , बच्चों का सत्र को बीच में छोडकर चले जाना मुख्य रूप से हैं ,जो शिक्षक ; अपने बच्चों में उनकी कक्षा के हिसाब के कौशलों का ना होने का मुख्य कारण बताते हैं । वे यह भी जोड़ते हैं की जो बच्चे कक्षा में नियमित हैं ,उनमें कौशलों का उचित विकास हुआ है ।
जैसा कि इस लेख में इस समस्या से निजात पाने का कुछ कारण जो कि नूतन मैडम के द्वारा अपनाया गया है ।
समुदाय के बीच समन्वय : इस समस्या से निजात पाने का सबसे मुख्य कड़ी यही हो सकती है । किन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि इसे किया कैसे जाए ? जैसा कि इसके लिए मैंने भी अपने स्कूल अभ्यास के दौरान कुछ कार्य किया -जैसे कि 1। नियमित रूप से शिक्षक और माता -पिता की सभा का आयोजन । हालांकि इसके लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है की स्कूल में माता -पिता आ सके । मैंने ऐसा किया की मैंने अपनी कक्षा के बच्चों को जो पढ़ाया था ,इस क्रम में
* मैंने जो शिक्षण सामाग्री बनवाएँ , जो प्रयोग अपनाएँ वो सभी बच्चों के द्वारा उनके माता -पिता के सामने दिखवाया या करवाया जाए।
* हर माह ,यह हर सप्ताह के अंत में एक शैक्षिक बाल मेला का आयोजन किया जाए ,जिसमे बच्चा सप्ताह भर में जो सीखा उसे उसके माता -पिता या बाहर से आए लोगों के सामने बताए ,जिसे देखकर माता -पिता का आत्मविश्वास बढ़ता है ,अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए ।
* बच्चों को प्रतिदिन कुछ ऐसा पढ़ाया -सिखाया जाए ,जिसका परिणाम बच्चों में तुरंत दिखे ,जैसे बच्चों को पढ़ना -लिखना ,दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले गणितीय समझ ,मेरा ऐसा मानना है कि यदि बच्चे का हिन्दी भाषा पर अधिकार हो जाता है तो बच्चा कभी भी स्कूल dropout कभी नहीं होगा ,और इस पर उसे अङ्ग्रेज़ी भाषा में बच्चे कि समझ सोने पे सुहागा का काम करेगा ।