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संघर्ष क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा : सुकमा, छत्तीसगढ़ से प्राप्त सबक

सामान्य तौर पर सुकमा और बस्तर क्षेत्र में आदिवासी समुदायों और मुख्यधारा के समाज की भाषा के बीच एक उल्लेखनीय अंतर है। यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि मुख्य जनजाति – कोंड – और उनकी भाषा द्रविड़ परिवार का हिस्सा है जो हिंदी से बहुत अलग है। हालांकि, वहां की जनजातीय आबादी को भाषा-उपयुक्त और संदर्भ-विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं।

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संघर्ष क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा : सुकमा, छत्तीसगढ़ से प्राप्त सबक

द्वारा : वी शांताकुमार एवं अनंत गंगोला

1.    परिचय

यह स्पष्ट है कि संघर्ष क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा के सामने गंभीर चुनौतियों की संभावना रहती है। भारत में अनुसूचित जनजातियों (STs) के मामले में यह चुनौतियां और गंभीर हो जाती हैं, जो पहले से ही शिक्षा में अन्य चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। उनकी स्थिति तब और खराब हो जाती है जब यह समुदाय दो युद्धरत गुटों – राज्य और इन आदिवासी समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले चरमपंथियों के बीच फंस जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में किसी गैर-सरकारी संगठन का अस्तित्व होना या कार्य करना कठिन है क्योंकि राज्य और माओवादी दोनों ही स्वतंत्र संगठनों के कामकाज के विरोधी हो सकते हैं। साथ ही, चूंकि इन क्षेत्रों में गतिशीलता प्रतिबंधित रहती है, इसलिए आंतरिक क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के साथ उनकी बातचीत सीमित हो जाती है।

इन चुनौतियों का विवरण इस रिपोर्ट से उभरकर सामने आता है, जो छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में अनुसूचित जनजातियों की स्कूली शिक्षा की स्थिति पर नज़र डालती है। हमने अपेक्षाकृत छोटे और नए गैर-सरकारी संगठन (NGO) शिक्षार्थ (Shiksharth) के काम पर नज़र डालते हुए हुए इस क्षेत्र अध्ययन (field study) की शुरुआत की है। यह रिपोर्ट सितंबर 2018 में इस क्षेत्र में किए गए एक लघु अवधि के क्षेत्र-कार्य (field-work) पर आधारित है।

2.    इस क्षेत्र में संघर्ष का इतिहास और प्रकृति

निकटवर्ती ओडिशा और आंध्र प्रदेश के जिलों के साथ दक्षिणी छत्तीसगढ़ के जिलों में लगभग पांच दशकों से वामपंथी चरमपंथी संगठनों या माओवादियों द्वारा की जानेवाली कार्यवाहियां  देखी जा रही है। यह संगठन सीमांत समूहों (आदिवासी समुदायों सहित) की भूमिहीनता, गरीबी और शोषण को उजागर करने के लिए अस्तित्व में आए, लेकिन इन मुद्दों को हल करने के लिए इन संगठनों के समर्थकों का लोकतंत्र या लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राज्य में विश्वास नहीं है, ऐसा आंशिक रूप से उस विचारधारा के कारण है जो उन्हें विरासत में मिली है। हालांकि इरादा सीमांत सामाजिक समूहों को लामबंद करने का है, लेकिन इन सामाजिक समूहों से इस आंदोलन की लीडरशिप कितनी दूर है, यह संदेहास्पद है। भूमिगत कार्यवाहियां; राज्य की एजेंसियों के साथ लंबे समय से चले आ रहे सशस्त्र और हिंसक संघर्ष; अवैध कार्यों के माध्यम से संसाधन जुटाने की आवश्यकता; लोकतांत्रिक लामबंदी के लिए एक वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी ऐसे कारक हैं जिन्होंने इसे एक भूमिगत चरमपंथी सक्रियता में तब्दील कर दिया है। सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच समय-समय पर मुठभेड़ होती रहती है, जिसमें दोनों पक्षों की जनहानि होती है। इस स्थिति ने राज्य को इस क्षेत्र के आसपास लोगों की आवाजाही को सख्ती से प्रतिबंधित करने और उन बाहरी एजेंसियों द्वारा किए जानेवाले ऐसे हस्तक्षेपों को संदेह की दृष्टि से देखने के लिए प्रोत्साहित किया है जिन्हें उसने मंजूरी नहीं दी है। इस संघर्ष की गतिकी पर प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है, 1 जिसकी चर्चा हम यहां नहीं करेंगे।

2005 में, छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों में आदिवासी समुदायों के बीच वाम-चरमपंथियों के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए, राज्य द्वारा सलवा जुडुम नामक एक जवाबी-नागरिक संगठन तैयार किया गया था। इसका नेतृत्व इन समुदायों के कुछ लीडर्स ने किया था, लेकिन इसे वित्तीय सहायता राज्य (और संभवतः अन्य गैर-राज्य कर्ताओं द्वारा) द्वारा प्रदान की गई थी। बाद में इसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया गया था2। इस समूह द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक रणनीति आदिवासी लोगों को शिविरों (अनिवार्यता और दबाव/जबरदस्ती के माध्यम से) में रखने की थी जो सशस्त्र पुलिस शिविरों के करीब थे या उनकी किलेबंदी में रक्षित थे ताकि इन लोगों को माओवादियों के प्रभाव से अलग किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप उन लोगों की माओवादी या उनके हमदर्द कहकर आलोचना की जाने लगी जो इन शिविरों में जाने के लिए तैयार नहीं थे, और ऐसी स्थिति निर्मित हो गई जिसमें वे पुलिस की  दंडात्मक कार्यवाही के आसान लक्ष्य बन गए। इससे आदिवासी समुदायों की गतिशीलता प्रभावित हुई और वे अपनी सामान्य आजीविका संबंधी गतिविधियां पूर्ण नहीं कर पा रहे थे। इसने उनके बीच किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक सामाजिक लामबंदी को भी हतोत्साहित किया क्योंकि इसे आसानी से राज्य की एजेंसियों द्वारा अतिवाद के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता था। सलवा जुडुम अब भंग कर दिया गया है लेकिन जिले के अंदरूनी हिस्सों (हालांकि कस्बों और जिला मुख्यालयों में नहीं) में माओवादी अब भी सक्रिय हैं। इन नागरिक-सेना गतिविधियों और राज्य  द्वारा की जानेवाली संबंधित कार्यवाही का इस क्षेत्र के बच्चों की शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और इनमें से कुछ मुद्दों पर हम निम्नलिखित अनुभागों में चर्चा कर रहे हैं।

3.    आवासीय विद्यालयों का प्रभुत्व

संघर्ष की स्थिति के कारण, सामुदायिक बस्तियों के आसपास स्थित दिवा-विद्यालय (day-schools) होना एक असामान्य बात है। आंशिक रूप से ऐसा सलवा जुडुम के उग्रवाद विरोधी अभियानों की अवधि के दौरान गांवों में दिवा-विद्यालयों के बंद होने के कारण हुआ है। माओवादी मौजूदगी भी दिवा-विद्यालयों के कामकाज को बाधित करती है क्योंकि बाहर के शिक्षक आंतरिक क्षेत्रों के गांवों में न तो जा सकते और न ही रह सकते हैं और इन आदिवासी समुदायों में शिक्षकों के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए उपयुक्त शैक्षिक योग्यता प्राप्त पर्याप्त लोग उपलब्ध नहीं हैं। इसके परिणामस्वरूप सरकार के आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा आवासीय विद्यालयों या ‘आश्रम शालाओं’ या विभिन्न एजेंसियों द्वारा संचालित छात्रावासों की स्थापना की गई है, जिनमें रहने वाले बच्चे अलग-अलग विद्यालयों में जाते हैं। ईसाई मिशनरियों और अन्य एजेंसियों द्वारा संचालित निजी आवासीय विद्यालय भी हैं। हालांकि, एक प्रकार का विद्यालय यहां अद्वितीय है, जिसे स्थानीय रूप से `पोटा केबिन’ (pota cabins) कहा जाता है, यह सुवाह्य विद्यालय (portable schools built with portable materials) होते हैं जो सुरक्षा उपाय के रूप में पुलिस शिविरों के निकट स्थापित किए गए हैं। इन केबिनों की अब स्थायी ठोस/कंक्रीट संरचनाएं हैं।

कुछ माता-पिता आवासीय विद्यालयों को अपेक्षाकृत सुरक्षित पाते हैं। एक शिक्षक, जिसने पूर्व में, सर्व शिक्षा अभियान (SSA) के सहायक परियोजना समन्वयक के रूप में आवासीय विद्यालयों की स्थापना में मदद की थी, ने एक दिलचस्प घटना सुनाई। वे एक मोहल्ले में सौ बच्चों के लिए आवासीय विद्यालय स्थापित करने की योजना बना रहे थे। जब यह पता चला, तो माता-पिता ने लगभग चार सौ बच्चों को वहां छोड़ा और अधिकारियों द्वारा इन बच्चों की स्वीकृति की किसी भी पुष्टि की प्रतीक्षा किए बिना तुरंत वहां से वापस चले गए। (इनमें से कुछ बच्चे उन क्षेत्रों से हो सकते हैं जहां माओवादियों की तब मजबूत मौजूदगी थी या जिनके माता-पिता विद्रोही समूह का हिस्सा थे)। मजबूरन प्रशासन को इन सभी बच्चों के आवास और भोजन की अस्थायी व्यवस्था करनी पड़ी।

सरकारी प्रशासन आवासीय विद्यालयों को बच्चों को माओवादियों के संभावित प्रभाव से दूर करने के तरीके के रूप में देखता है। उनका यह मानना हो सकता है कि ऐसे विद्यालयों में उपलब्ध सुविधाएं; टेलीविजन के संपर्क में आना; और, शिक्षा के बाद सरकारी नौकरी पाने की संभावना आदिवासी युवाओं को माओवादी बालों में शामिल होने से हतोत्साहित करेंगी। संघर्ष और संघर्ष का प्रभाव घटाने के लिए राज्य की प्रतिक्रिया ने जिला कलेक्टरों (और पुलिस अधिकारियों) के हाथों में पर्याप्त मात्रा में वित्तीय संसाधन और शक्ति सौंप दी है। इनमें से कुछ अधिकारी ईमानदार हैं और आदिवासी आबादी के कल्याण में रुचि रखते हैं और वे इन संसाधनों और अपने हाथों में प्राप्त शक्ति का उपयोग वांछित परिवर्तन लाने के लिए करते हैं। लेकिन ऐसे अधिकारी भी हैं जो भ्रष्ट और/या अक्षम हैं। इसके अलावा, जब अधिकारी बदलते हैं, तो यह कोई असाधारण बात नहीं है कि नए कलेक्टर द्वारा अपने पूर्ववर्ती द्वारा किए जा रहे अच्छे काम बंद कर दिए जाएं और खुद को प्राप्त शक्ति और संसाधनों का उपयोग उसके द्वारा अपने काल्पनिक विचारों का परीक्षण करने के लिए किया जाए, उदाहरण के लिए यह कि कंप्यूटर प्रशिक्षण या इस तरह के कौशल से आदिवासी समुदाय के छात्र सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनने में समर्थ होंगे। ऐसी विकट परिस्थितियों से आनेवाले बच्चों की स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के लिए एक बहुत ही अलग ढंग की सामाजिक-भावनात्मक सुरक्षा की आवश्यकता होती है। हालांकि, इन प्रयासों के पीछे शिक्षा के किसी सुसंगत विचार के प्रति प्रतिबद्धता की कमी देखी जा सकती है, जिसके परिणामस्वरूप विषय वस्तु और शिक्षाशास्त्र पर ध्यान का अभाव पाया जाता है। अधिकारियों और अन्य लोगों के बीच अपेक्षित कौशल का अभाव इन संदर्भों में स्कूली शिक्षा को कम शिक्षात्मक बना सकता है।

अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा के मुख्य साधन के रूप में आवासीय विद्यालयों के विकल्प से संबंधित सभी मुद्दे इस मामले में भी प्रबल हैं3। यहां तक ​​कि अगर इन आदिवासी समुदायों की शिक्षा के संदर्भ-जुड़ाव या आवासीय विद्यालयों में छोटे बच्चों के सामने आनेवाली कठिनाइयों से संबंधित मुद्दों (कमी) को छोड़ भी दिया जाए, तो यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन स्कूलों के साथ उनके माता-पिता का सीमित संवाद होता है। हालांकि, संघर्ष एक ऐसी स्थिति पैदा करता है जिसमें इन इलाकों में आवासीय विद्यालय एकमात्र विकल्प हो सकते हैं। माता-पिता द्वारा ऐसे स्कूलों की मांग की कोई कमी नहीं है, और इनमें से अधिकतर स्कूलों को अपनी क्षमता से अधिक बच्चों को समायोजित करना पड़ता है। इसका असर सुविधाओं की गुणवत्ता पर भी पड़ता है। हालांकि, चूंकि यह बच्चे अत्यंत कठिन आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं, इसलिए संभव है उन्हें यह सुविधाएं अपर्याप्त न लगें।

4.    संघर्ष स्पष्ट बुनियादी ढांचे में निवेश प्रोत्साहित करता है

देश के विकास प्रशासकों के बीच यह धारणा है कि इस क्षेत्र में माओवादियों का प्रभाव कम करने का तरीका विकास है। इस कारण से, सरकारें बुनियादी ढांचे के विकास और शिक्षा पर संसाधन खर्च करने के लिए तैयार हैं। इसके अलावा, वित्त पोषण के अन्य स्रोत हैं जैसे जिला खनन कोष (जिले के भीतर खनिज संसाधनों के निष्कर्षण में संलग्न निजी और सार्वजनिक कंपनियों द्वारा प्रदान की जाने वाली रॉयल्टी)। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, जिला प्रशासन (विशेषकर कलेक्टरों) के पास इन संसाधनों के उपयोग के बारे निर्णय लेने की शक्ति है।

इन संसाधनों की उपलब्धता देखते हुए, और आंतरिक भागों में उग्रवाद और उग्रवाद विरोधी अभियानों की निरंतरता को भी देखते हुए, जिला मुख्यालयों पर कुछ केंद्रीकृत सुविधाओं पर अधिक खर्च होगा। सुकमा शहर में कई तरह के स्कूलों और प्रशिक्षण संस्थानों से युक्त एक ‘एजुकेशन सिटी’4 है। वहां विकलांग/दिव्यांग बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास की भी बहुत अच्छी सुविधा है। हालांकि यह उपयोगी है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। उदाहरण के लिए, विकलांग/दिव्यांग बच्चों की शिक्षा के लिए इस तरह के सार्वजनिक निवेश से इन बच्चों के केवल एक निश्चित समूह को लाभ होता है क्योंकि अन्य की पहचान नहीं हो सकती है या हो सकता है कि वे इस प्रकार के केंद्र पर आने और रहने की स्थिति में न हों। यहां आनेवालों को अपना घर और माता-पिता को छोड़ना होगा, जैसा कि आवासीय विद्यालयों के बच्चों के मामले में होता है। दूसरी ओर, संघर्ष के बने रहने के कारण विकलांग बच्चों की शिक्षा और देखभाल में विकेन्द्रीकृत सुधार असंभव होगा।

संक्षेप में, जिला प्रशासन के हाथों में शक्ति और संसाधन होने के कारण विकास संबंधी कार्यवाहियों में कुछ लचीलापन संभव है। हालांकि, यह किसी क्षेत्र विशेष में निरंतर सुधार के खिलाफ भी काम कर सकता है। जिले में नवनियुक्त अधिकारियों की नई परियोजनाएं शुरू करने और उनके पूर्ववर्तियों द्वारा शुरू की गई परियोजनाएं बंद करने की प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। बीते वक़्त में वहां सेवा प्रदान कर चुके अधिकारियों द्वारा किए गए कार्यों, उनकी सफलताओं और असफलताओं का कोई संस्थागत स्मरण नहीं है। इससे संसाधनों की बर्बादी होती है। सत्ता की संरचना ऐसी है कि शिक्षा के क्षेत्र-स्तर के विभागों के पास ज़िला स्तर के प्रशासन के निर्देशों का पालन करने के अलावा और कुछ करने की शक्ति या झुकाव नहीं है।

5.    संघर्ष और गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा विकास संबंधी हस्तक्षेप

उग्रवाद और उग्रवाद-विरोधी कार्यवाही की निरंतरता कई वित्त पोषण संगठनों को इस क्षेत्र में गतिविधियों के लिए आर्थिक सहायता करने से हतोत्साहित करती है। वित्त पोषण करने वाले संगठनों के नैगमिक सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) की कोई विशिष्ट रुचि हो सकती है, क्योंकि जिले में उनके कार्य संघर्ष की निरंतरता से प्रभावित हो सकते हैं। कुछ निजी कंपनियों और फाउंडेशन द्वारा सलवा जुडुम का वित्त पोषण किए जाने की अटकलें हैं। अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन जैसे शिक्षा से जुड़े संगठनों के लिए ऐसे क्षेत्रों में काम कर पाना शायद संभव नहीं हो। इन क्षेत्रों में काम करने वाले अपेक्षाकृत छोटे गैर सरकारी संगठनों का सामना अवसरों के साथ-साथ कई चुनौतियों से भी हो सकता है। जिला प्रशासन के पास उपलब्ध लचीलापन इसे गैर सरकारी संगठनों को सरकारी प्रणाली में हस्तक्षेप के लिए शामिल करने में सक्षम बना सकता है। हमने ऐसे मामले देखे हैं जहां जिला कलेक्टरों ने उन गतिविधियों के लिए विशिष्ट गैर सरकारी संगठनों का उपयोग किया है जो आमतौर पर सरकारी अधिकारियों द्वारा की जाती हैं। हालांकि, जिला प्रशासन के आशीर्वाद के बिना किसी भी गैर-सरकारी संगठन के लिए काम करना मुश्किल है; सरकार से अलग रहते हुए कोई भी विकास संबंधी स्वायत्त हस्तक्षेप करना संभव नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र उग्रवाद और उग्रवाद-विरोधी अभियानों के बीच फंसा हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के लिए इन समुदायों के साथ काम करना बहुत मुश्किल है जो गैर-राज्य विकास कर्ताओं के साथ स्वतंत्र रूप से बातचीत नहीं कर सकते हैं। हम निम्नलिखित अनुभाग में ऐसे ही एक संगठन शिक्षार्थ (Shiksharth) का मामला ले रहे हैं।

6.    शिक्षार्थ (Shiksharth) के कार्य

छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में आदिवासी बच्चों की शिक्षा में योगदान देने के लिए एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर और टीच-फ़ॉर-इंडिया के आशीष के संकल्प से इस संगठन की उत्पत्ति हुई है। आरम्भ में उन्होंने बचपन बनाओ (Bachpan Banao) के साथ सह-संस्थापक और संस्थापक निदेशक के रूप में काम की शुरुआत की, जो दंतेवाड़ा जिले में शिक्षा में संलग्न एक अन्य संगठन है। कुछ वर्षों के बाद, वे कुछ अन्य लोगों के साथ बाहर चले गए और सुकमा से संचालन शुरू किया, जहां 2016 में उन्होंने शिक्षार्थ (Shiksharth) नामक एक नए संगठन का पंजीयन कराया। दंतेवाड़ा में काम के दौरान जो संपर्क विकसित हुए, उनसे उन्हें सुकमा में जिला प्रशासन और सरकारी स्कूलों के साथ संबंध स्थापित करने में मदद मिली। हमारे अनुसार, संगठन के प्रमुख लाभ यह हैं कि उनके पास प्रतिबद्ध और समझदार युवा पेशेवरों का एक समूह है, जिन्होंने स्वेच्छा से काम का यह विकल्प चुना है; उनका उद्देश्य सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में यथासंभव सहायता प्रदान करना है; और इस क्षेत्र में अपने तीन से चार वर्षों के कार्य के आधार पर उन्हें मुद्दों की काफी अच्छी समझ है।

इस संगठन के सदस्यों ने शुरू में अतिरिक्त शिक्षकों के रूप कार्य करने के साथ-साथ ‘पोटा केबिन’ (pota cabin) और अन्य आवासीय विद्यालयों में कार्यवाही शोधकर्ताओं (action researchers) के रूप में काम करना शुरू किया। उनके पास न तो स्वयं के और न ही जिला प्रशासन से प्राप्त बहुत अधिक संसाधन थे। आशीष के अनुसार, आवासीय विद्यालयों में काम करने से उनके परिचालन और व्यक्तिगत खर्च घटाने में मदद मिली (चूंकि इन स्कूलों में भोजन और रहने की बुनियादी सुविधा उपलब्ध है)। आशीष ने अपने दोस्तों और निजी संजाल (network) से कुछ धन एकत्र किया। उन्होंने विज्ञान, भाषा और गणित की शिक्षा में अभिनव कार्यप्रणालियों का उपयोग करना शुरू किया। इसके अलावा, वे जिला प्रशासन की शैक्षिक योजनाओं में सहायता प्रदान करते हैं और एजुकेशन सिटी बनाने के लिए परियोजना की रूपरेखा निर्धारित करने और उसके क्रियान्वयन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई है। समय के साथ, अधिक लोगों की भर्ती (शिक्षार्थ का हिस्सा बनने के लिए) और विशिष्ट हस्तक्षेप कार्यक्रम शुरू करने के लिए उन्हें जिला प्रशासन से कुछ वित्तीय प्रतिबद्धताएं प्राप्त हुई हैं।

वर्तमान में, शिक्षार्थ उन बच्चों के लिए सेतु पाठ्यक्रम कार्यक्रम का प्रबंधन कर रहा है जो स्कूल छोड़ चुके हैं। छह माह के इस कार्यक्रम के अंत में, विभिन्न (आवासीय) स्कूल इन छात्रों को आयु-उपयुक्त कक्षा में प्रवेश देते हैं। शिक्षार्थ की भूमिका अकादमिक गतिविधियों और छात्रों के चयन तक सीमित है। आवासीय व्यवस्था आदि सभी पहलुओं का ध्यान संबंधित सरकारी विभाग द्वारा रखा जाता है। शिक्षार्थ के चार सदस्य इस सेतु पाठ्यक्रम के शोध छात्रों (या शिक्षकों) के रूप में काम करते हैं। वे राज्य के बाहर विभिन्न शहरों से हैं और इंजीनियरिंग या राजनीति विज्ञान में शिक्षा प्राप्त हैं। शिक्षार्थ ने स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कुछ स्थानीय लोगों (आदिवासी समुदायों से) को नियुक्त किया है और इस सेतु पाठ्यक्रम कार्यक्रम के लिए जुटाई गई सुविधाएं उपयुक्त हैं।

संगठन के अन्य शोध छात्र भी हैं जो ‘पोटा केबिन’ और आवासीय विद्यालयों में तैनात हैं। यह सदस्य या तो स्कूलों में पढ़ाते हैं या उनका प्रबंधन करते हैं। हालांकि उन्हें प्रशासन से समर्थन प्राप्त है, लेकिन शुरू में उन्हें उन शिक्षकों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है जो उनसे डरते हैं क्योंकि वे इन बाहरी लोगों को प्रशासन के प्रहरी के रूप में देखते हैं। हालांकि, बाद में शिक्षक इन बाहरी लोगों पर भरोसा करना शुरू कर देते हैं और शिक्षार्थ के इन सदस्यों को शिक्षण में अधिकाधिक शामिल करना पसंद कर सकते हैं, विशेषकर उन विषयों के शिक्षण में जिनमें उनकी स्वयं की पर्याप्त दक्षता नहीं है।

शिक्षार्थ आदिवासी बच्चों की शिक्षा और संदर्भ-विशिष्ट शिक्षण के लिए द्विभाषी सामग्री विकसित करने में भी संलग्न है। हालांकि, इस क्षेत्र में और अधिक व्यवस्थित कार्य किए जाने की आवश्यकता है। भारत में विभिन्न जनजातीय क्षेत्रों में काम करने वाले अन्य संगठन हैं, जो संदर्भ-विशिष्ट द्विभाषी शिक्षा सामग्री के विकास में संलग्न हैं। उनके अनुभव से सीखना शिक्षार्थ के लिए बहुत लाभप्रद होगा। हमें यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि संगठन यह सुझाव स्वीकार करने के लिए तैयार है और केवल इसके लिए या वैचारिक कारणों से उसका ‘कार्य दोहराने’ का कोई इरादा नहीं है।

इस संगठन के सामने आनेवाली चुनौतियों में से एक जिला प्रशासन के साथ संबंधों का मुद्दा है जो जिला कलेक्टर के रवैये और रुचि पर निर्भर करता है। जिस अधिकारी ने उन्हें अपना आधार स्थापित करने में मदद की वह बाहर चला गया है। वर्तमान अधिकारी गैर-सरकारी संगठन के साथ जुड़ना पसंद नहीं करता है और सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत करने के संबंध में उसके अपने विचार हैं (उदाहरण के लिए, सभी शिक्षकों के लिए एक परीक्षा आयोजित करना और जो परीक्षा उत्तीर्ण नहीं करते हैं उन्हें तीन महीने के अनिवार्य आवासीय प्रशिक्षण पर जाने के लिए बाध्य करना)। चूंकि शिक्षा विभाग के अधिकारियों के साथ भी शिक्षार्थ के अच्छे संबंध हैं, इसलिए जिला कलेक्टर के प्रतिकूल या उदासीन रवैये के बावजूद उनका जुड़ाव कुछ हद तक जारी रह सकता है। इसके अलावा, उन्होंने धैर्य रखना और सीमांत सामाजिक समूहों के बच्चों की जरूरतों पर ध्यान केंद्रित रखना सीख लिया है। अगर इसका मतलब कुछ बाधाओं को नजरअंदाज करना है, तो वे ऐसा करते हैं। उन्होंने यह भी निर्णय लिया है कि वे अपनी मुख्य गतिविधियों के लिए जिला प्रशासन द्वारा उपलब्ध कराए गए धन पर निर्भर नहीं रहेंगे। वे उच्च आय वाले व्यक्तियों सहित वित्त पोषण के अन्य स्रोत तलाशते हैं। इस तरह का व्यक्तियों से प्राप्त होनेवाला वित्त पोषण अधिक स्वायत्तता संभव बनाता है। एक और बड़ी चुनौती इस क्षेत्र में काम करने के लिए कर्मचारियों को आकर्षित नहीं कर पाना है। हालांकि आदिवासी बच्चों की शिक्षा के प्रति शहरी युवाओं द्वारा कुछ आकर्षण महसूस किया जाता है, ऐसा प्रतीत होता है कि वे उत्तर-पूर्वी राज्यों में काम करना पसंद करते हैं, न कि सुकमा जैसी जगहों पर। इस संबंध में भी संघर्ष की निरंतरता एक अतिरिक्त असामर्थ्यकारी कारक हो सकती है।

शिक्षार्थ ने महसूस किया है कि जिला प्रशासन पर पूर्ण निर्भरता उन्हें कोई व्यापक हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं देती है। उदाहरण के लिए, कुछ ‘पोटा केबिन’ में, उन्हें सिर्फ एक कक्षा में संलग्न किया गया है। हमें यकीन नहीं है कि यह जुड़ाव इस कक्षा के पहले, बाद में या कक्षा के बाहर की गतिविधियों पर बिना किसी नियंत्रण के शैक्षिक रूप से कैसे काम करेगा। हालांकि, सुकमा की कठिन स्थिति को देखते हुए, वहां शिक्षार्थ की मौजूदगी और सार्वजनिक शिक्षा के साथ उसके जुड़ाव को कम नहीं आंका जा सकता।

7.    स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर संघर्ष का प्रभाव

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की शिक्षा गंभीर चुनौतियों का सामना करती है। उदाहरण के लिए, उनकी अपनी भाषा और स्कूली शिक्षा की भाषा के बीच का अंतर। सुकमा में संघर्ष की निरंतरता इन कठिनाइयों को बढ़ा देती है। हालांकि बच्चों को आवासीय विद्यालयों में भेजने में अभिभावकों की रुचि है, कार्यात्मक दिवा विद्यालयों (day schools) की अनुपलब्धता का नामांकन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विद्यालय छोड़ने की दर अधिक है और चूंकि विद्यालय छोड़ने वाले बच्चों के लिए संचालित सेतु पाठ्यक्रम केंद्रीकृत है, इसलिए यह निश्चित नहीं है कि इसमें कितने बच्चे शामिल हो सकते हैं। सेतु पाठ्यक्रम कार्यक्रम संचालित करने वाले लोगों के साथ हमारी बातचीत से पता चलता है कि जिला प्रशासन की रुचि (जो कलेक्टर के आधार पर भिन्न हो सकती है) इसमें नामांकित किए जाने वाले बच्चों की संख्या निर्धारित करेगी।

ऐसे आवासीय विद्यालयों में भी पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं जो जिला मुख्यालय से दूर स्थित नहीं हैं। अन्य जिलों के शिक्षक शुरू में नौकरी पाने के लिए ऐसे संघर्ष-ग्रस्त क्षेत्रों का विकल्प चुन सकते हैं, लेकिन अवसर मिलने पर वे स्थानान्तरण के प्रयास कर सकते हैं। आदिवासी समुदायों के बीच औपचारिक शिक्षा के इतिहास को देखते हुए, उनमें से पर्याप्त योग्यता प्राप्त शिक्षकों की उपलब्धता संभव नहीं है। जब अन्य समुदायों के शिक्षक इन स्कूलों में काम करते हैं तो प्रेरणा और सांस्कृतिक दूरी के मुद्दे सामने आ सकते हैं। यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि अधिकांश छात्र पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं, और उन्हें अपनी शिक्षा में माता-पिता से अधिक सहायता नहीं मिलती है। माता-पिता शायद ही स्कूलों के साथ संवाद करते हैं और इसलिए, स्कूल प्रबंधन समितियों और ऐसे अन्य मंचों, यदि उपलब्ध हैं, के माध्यम से स्कूली शिक्षा के मामलों में समुदायों की अपेक्षित भूमिका बहुत सीमित है।

इन सभी कारणों से बच्चों का अधिगम स्तर अवांछनीय बना हुआ है। एक शिक्षक ने हमें बताया कि ऐसे बच्चे शायद 30% से भी कम हैं जिनके पास उनकी कक्षाओं से संबंधित उपयुक्त अधिगम उपलब्धियां हों। स्थिति में सुधार के लिए बाहरी संगठनों द्वारा किए जानेवाले प्रयास भी उन मुद्दों के कारण सीमित हैं जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। सुकमा में अनुभव और शिक्षार्थ के काम के आधार पर भी, हम इन क्षेत्रों के आदिवासी बच्चों की शिक्षा में सामने आनेवाली कुछ चुनौतियों का समाधान करने के तरीके के रूप में संघर्ष घटाने की आवश्यकता पर कुछ टिप्पणियां प्रस्तुत कर रहे हैं।

8.    अंतर-सांस्कृतिक शिक्षा की आवश्यकता

सामान्य तौर पर सुकमा और बस्तर क्षेत्र में आदिवासी समुदायों और मुख्यधारा के समाज की भाषा के बीच एक उल्लेखनीय अंतर है। यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि मुख्य जनजाति – कोंड – और उनकी भाषा द्रविड़ परिवार का हिस्सा है जो हिंदी से बहुत अलग है। हालांकि, वहां की जनजातीय आबादी को भाषा-उपयुक्त और संदर्भ-विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं। उग्रवादी ताकतों के प्रभाव के बारे में चिंतित राज्य का ध्यान आदिवासी समुदायों को मुख्यधारा की/प्रमुख भाषा में शिक्षा प्रदान करने पर केंद्रित है। एक उपयुक्त शिक्षा केवल जनजातीय लोगों की भाषा में नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह द्विभाषी शिक्षा भी हो सकती है जैसा कि देश के अन्य जनजातीय समूहों के मामले में देखा गया है। यह एक अंतर-सांस्कृतिक शिक्षा भी हो सकती है, जिसमें आदिवासी आबादी एक ऐसी शिक्षा प्राप्त करती है जो उन्हें न केवल उनकी संस्कृति और परंपराओं पर चिंतन करने में मदद करती है बल्कि मुख्यधारा के समुदाय सहित अन्य लोगों से बर्ताव करने (और उन्हें समझने) में भी मदद करती है। मुख्यधारा के समुदाय के लिए भी ऐसी अंतर-सांस्कृतिक शिक्षा महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि सुकमा जैसे क्षेत्रों का राजनीतिक और सामाजिक वातावरण आदिवासी समुदायों के लिए उपयुक्त शिक्षा की योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने के लिए अनुकूल नहीं है।

9.    सशस्त्र संघर्ष टालने लेकिन राजनीतिक लामबंदी सुगम बनाने की आवश्यकता

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वास्तविक राजनीतिक और वित्तीय शक्ति इस क्षेत्र के गैर-आदिवासी लोगों के हाथों में है। आदिवासी समुदायों से उभरे राजनीतिक नेता मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के स्थानीय पदाधिकारी या संचालक बन गए हैं। वे वोट बैंक के व्यापारियों के रूप में कार्य करते हैं और विधानसभा और संसद में आदिवासी आबादी के लिए आरक्षित सीटें भरते हैं। हालांकि, भ्रष्टाचार के माध्यम से बड़े पैमाने पर संसाधन जुटाना उनके लिए असामान्य नहीं है। इससे आवासीय विद्यालयों में उपलब्ध सुविधाओं सहित सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होती है। स्थानीय अधिकारी अपने भ्रष्ट व्यवहारों को उचित ठहराने के लिए इन राजनीतिक नेताओं को धन उपलब्ध कराने की आवश्यकता का हवाला देते हैं। हमने आवासीय विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएं प्रदान नहीं किए जाने की कई शिकायतें सुनी हैं। जहां यह उपलब्ध हैं, वे अच्छी या पर्याप्त नहीं हैं और यह संभव नहीं है कि संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण ऐसा हो रहा हो। भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर व्याप्त है और इस क्षेत्र या आदिवासी समुदायों के नेताओं के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं है।

कुछ ईमानदार आदिवासी नेता हैं जो प्राकृतिक संसाधनों तक आदिवासी समुदायों की पहुंच का मुद्दा उठाते हैं। हालांकि, वे राज्य सरकार को वन अधिकार अधिनियम (FRA) अक्षरश: लागू करने के लिए राजी करने में बहुत सफल नहीं रहे हैं, जो एक बड़ी बाधा है। हमने देखा है कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत सामुदायिक अधिकारों में आदिवासी समुदायों की आजीविका और मानव विकास में सुधार लाने की क्षमता है (जैसा कि महाराष्ट्र में गढ़चिरोली (Gadchiroli district) जिले के कुछ हिस्सों से स्पष्ट है)। हालांकि, छत्तीसगढ़ में ऐसे अधिकारों को पर्याप्त रूप से मान्यता प्राप्त नहीं हुई है।

मुक्त गतिशीलता पर प्रतिबंध, जो भूमि और प्राकृतिक संसाधनों के जरिए बेहतर आजीविका की संभावना को सीमित करते हैं, ने इन लोगों के कल्याण को प्रभावित किया है। यह उन्हें या तो अपने गांव के भीतर अस्तित्व के अनिश्चित साधनों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर करता है या नौकरियों सहित राज्य से कुछ सहायता प्राप्त करने की उम्मीद में कस्बों और शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर करता है। चरमपंथ और इसके प्रति राज्य की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उनके आर्थिक अवसर सिमट रहे हैं।

हमारे विचार में, जनजातीय आबादी की शिक्षा और उनके जीवन में एक ठोस सुधार के लिए यह आवश्यक है कि कानून और व्यवस्था की स्थिति सामान्य हो और लोकतांत्रिक कार्यवाहियों पर आधारित एक सामाजिक और राजनीतिक लामबंदी हो। वहां माओवादी प्रभाव और विद्रोह विरोधी अभियानों से हुई प्रमुख क्षति जनजातीय समुदायों की एक व्यवहार्य और लोकतांत्रिक लामबंदी का अभाव है। सलवा जुडुम जैसे संगठन, भले ही आदिवासी नेताओं द्वारा नियंत्रित हों, लोकतांत्रिक नहीं हैं और वे केवल यहां रहने वाले लोगों की कठिनाइयां बढ़ा सकते हैं। वर्तमान स्थिति में जनजातीय लोगों की किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक लामबंदी लगभग असंभव है, जिसने इन समुदायों और क्षेत्र के मूलभूत राजनीतिक और सामाजिक विकास को धीमा कर दिया है।

इस तरह की लोकतांत्रिक लामबंदी के अभाव में, विकास सरकारी अधिकारियों सहित राज्य के कर्ताओं की परोपकारी कार्यवाहियों पर निर्भर करेगा, हालांकि, वे आदिवासी लोगों के सशक्तिकरण के बजाय उग्रवाद की रोकथाम के बारे में अधिक चिंतित हैं। साथ ही, लोगों के किसी समूह का कोई सार्थक विकास तब तक संभव नहीं होगा जब तक वे राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के निष्क्रिय प्राप्तकर्ता बने रहेंगे। इसके लिए लोगों द्वारा सहयोगात्मक रूप से और विरोधात्मक तरीके से सहभागिता की आवश्यकता होती है। वर्तमान परिवेश में इस प्रकार की सहभागिता असंभव है। उदाहरण के लिए, उन स्कूलों के मामलों में माता-पिता या समुदाय की सहभागिता असंभव है जहां उनके बच्चे पढ़ते हैं (जो सहयोग का एक उदाहरण है) और आवासीय विद्यालयों में भी यह असंभव है जहां माता-पिता की पहुंच कम है। दूसरी ओर, आलोचना के एक संकेत मात्र (विरोधात्मक सहभागिता) को भी विद्रोह का संकेत समझा जा सकता है और इसमें शामिल लोग राज्य की जबरदस्त कार्यवाही का निशाना बन सकते हैं।

सुकमा और निकटवर्ती क्षेत्रों की स्थिति देखते हुए सामाजिक वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और चिंताशील नागरिकों को माओवादी उग्रवाद के प्रभाव के बारे में एक संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने की प्रेरणा प्राप्त होनी चाहिए। इसे महज कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं माना जाना चाहिए। वास्तव में, अधिकांश सरकारी अधिकारी भी वर्तमान में चरमपंथी ताकतों के प्रभाव को आर्थिक अवसरों और मानव विकास की कमी के प्रतिबिंब के रूप में देखते हैं और उनकी प्रतिक्रिया यह है कि केंद्रीकृत और शीर्ष-पाद (top-down) तरीके से अधिक विकास सेवाएं प्रदान करते हुए इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।

माओवादी उग्रवाद का महिमामंडन करने के और प्रयास नहीं होने चाहिए, जिसने निश्चित रूप से बीते वक़्त में आदिवासी लोगों के एक वर्ग या संवर्गों के एक समूह में सशक्तिकरण की भावना पैदा की हो। इसके अलावा, माओवादी ताकतों की ओर से संभावित प्रतिक्रिया के डर से बाहरी लोगों द्वारा किए जानेवाले कई प्रकार के शोषण में कमी आई है। अब ऐसा प्रतीत होता है कि आदिवासी समुदाय माओवादियों से उतने ही भयभीत हैं, जितने भयभीत वे राज्य के सशस्त्र बलों से हैं। यह चरमपंथी राजनीतिक आंदोलन पहले ही माफिया-सह-वैचारिक समूह में फंस गया होगा, और इसमें शामिल लोगों को इसे छोड़कर बाहर निकल पाना मुश्किल लग सकता है। कुछ के लिए आर्थिक लाभ संभव हो सकता है और यह उन्हें यथास्थिति को महत्व देने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। उनमें से कुछ अपने स्वयं के जीवन (संभावित कानूनी कार्यवाहियों सहित) के लिए हिंसा-मुक्त मार्ग के संभावित परिणामों से भयभीत हो सकते हैं और यह यथास्थिति की निरंतरता के लिए एक अन्य कारक हो सकता है।

दोनों पक्षों की चोटों/क्षतियों और मानव जीवन की हानि; विशाल धनराशि की आवश्यकता; और क्षेत्र में सशस्त्र बलों की उपस्थिति बढ़ाने की प्रवृत्ति सहित विद्रोह की लागत बहुत अधिक हो सकती है और कई तरह से हो सकती है। हालांकि, हमारे विचार में, वर्तमान संदर्भ में माओवादियों द्वारा कारित जो सबसे बड़ी क्षति हुई है, वह इन सीमांत लोगों की लोकतांत्रिक, सामाजिक और राजनीतिक लामबंदी की राह में खड़ी की गई बाधाएं हैं।

माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों द्वारा उन्हें हिंसा का रास्ता छोड़कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने के लिए दृढ़तापूर्वक मनाया जाना चाहिए। जनजातीय समुदायों पर उनकी पकड़ को देखते हुए, वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने पर चुनावी लाभ प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं। यदि नेपाल या कोलंबिया में सुलह की ऐसी प्रक्रिया संभव है, तो इसे भारत में भी अवश्य आजमाया जाना चाहिए। हालांकि, इसका अर्थ यह नहीं है कि आदिवासी और समाज के अन्य वर्गों के बीच राजनीतिक कार्यवाही त्याग दी जाए। इन लोगों को संगठित करने की और उनके द्वारा वन अधिकार अधिनियम (FRA) के क्रियान्वयन सहित अपने अधिकारों का दावा करने के लिए अहिंसक कार्यवाही किए जाने की तत्काल आवश्यकता है। आदिवासी समुदायों के बीच शिक्षा की प्रक्रिया की अधिक चिंता और स्वामित्व होना चाहिए। चाहे वह ब्राजील हो, बोलीविया हो या मिजोरम, राजनीतिक और सामाजिक लामबंदी के माध्यम से आदिवासी या स्वदेशी लोगों की शिक्षा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। इसलिए, जनजातीय लोगों के बीच एक मूलभूत और लोकतांत्रिक राजनीतिक विकास सुगम बनाने की आवश्यकता है, और इसके लिए माओवादी उग्रवाद समाप्त करना आवश्यक है।

You can read the original article in English here.

लेखक

वी शांताकुमार (V Santhakumar), प्रोफ़ेसर, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी

अनंत गंगोला (Anant Gangola), एसोसिएट डायरेक्टर, फ़ील्ड प्रैक्टिस एंड स्टूडेंट्स अफ़ेयर्स, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी

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