Teachers for Inclusive Society

स्कूल में बच्चों को बनाए रखने के लिए सामुदायिक संबंध महत्वपूर्ण हैं

चेहरे पर एक दृढ़ संकल्प के भाव के साथ लक्ष्मी बताती हैं,‘आप चाहें तो इसे मेरा पागलपन कह सकती हैं लेकिन मेरा जीवन इन बच्चों के लिए समर्पित है।’ लक्ष्मी ने स्कूल चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी संभाल ली है – भवन निर्माण से लेकर बच्चों के सीखने, प्रतियोगिताओं में भाग लेने और समुदाय के साथ संबंध बनाए रखने तक की…

Print Friendly, PDF & Email

स्कूल में बच्चों को बनाए रखने के लिए सामुदायिक संबंध महत्वपूर्ण हैं

शिक्षिका: लक्ष्मी नैथानी
स्कूल: गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल कांडा, कलजीखाल ब्लॉक, जिला पौड़ी, गढ़वाल, उत्तराखंड

द्वारा: शिप्रा सुनेजा
अनुवादक: नलिनी रावल

This is a translation of the article originally written in English.

विद्यालय

गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल कांडा, उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कोटद्वार (रेलवे स्टेशन वाला निकटतम शहर) से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। यह गढ़वाल की विस्तृत पहाड़ियों पर फैले पेड़ों के घने आवरण के बीच एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। जैसे-जैसे हम प्राथमिक विद्यालय तक पहुँचने के लिए पहाड़ी पर चढ़ते गए, हमें स्कूल की छत से लटकती हुई बोगनवेलिया दिखाई देने लगी। हम जल्द ही स्कूल के प्रांगण के भीतर पहुँच गए, जहाँ लगभग 30 बच्चे सुबह की प्रार्थना सभा के लिए कतारों में खड़े थे। उन्होंने देशभक्ति के गीत गाए, उसके बाद एक प्रतिज्ञा की, पहले अंग्रेजी में और फिर हिंदी में। हिंदी प्रतिज्ञा में उनके उत्तराखंड राज्य के प्रति प्रेम का उल्लेख था,‘उत्तराखंड हमारे देश का मस्तक है… हम यह वचन देते हैं कि हम अपने उत्तराखंड को कोई नुक़सान नहीं पहुँचने देंगे’। छात्रों की भावना को मज़बूत करते हुए हेड टीचर लक्ष्मी नैथानी, एक हाथ से साड़ी को पकड़कर बच्चों के साथ गाते हुए, कतारों के बीच बड़ी सक्रियता के साथ चल रही थीं।

लक्ष्मी की यात्रा

लक्ष्मी का घर-परिवार स्कूल से 55 किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर कोटद्वार में है, इसलिए उन्होंने स्कूल से कुछ ही किलोमीटर दूर सतपुली गाँव में एक कमरा ले लिया था। वे आमतौर पर एक साझा जीप से स्कूल आती हैं पर कभी-कभी वे रास्ते में माता-पिता के साथ बातचीत करने के इरादे से पैदल स्कूल जाती हैं।

लक्ष्मी तीन बहनें हैं और उन्होंने अपने जीवन के एक दौर में गरीबी को झेला है (हमने गरीबी देखी है, वे कहती हैं)। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पौड़ी गढ़वाल जिले के एक छोटे से शहर लैंड्सडाउन के एक सरकारी स्कूल में प्राप्त की। जब वे छोटी थीं तब वे नहीं जानती थीं कि उन्हें क्या बनना है लेकिन जब भी वे अपने भाई-बहनों या दोस्तों के साथ खेलतीं तो शिक्षिका बन जातीं और फिर धीरे-धीरे वे इस निर्णय पर पहुँची कि वे केवल ‘टीचरगिरी’ करेंगी और कुछ नहीं।

लक्ष्मी का मानना ​​है कि अपने शिक्षकों के साथ बच्चों के शुरुआती अनुभव उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अपने शिक्षकों से सीखे गए मूल्यों के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने ‘अनुशासन’ को सबसे महत्वपूर्ण बताया और उसके बाद ‘कड़ी मेहनत’ का ज़िक्र किया। शुरुआती वर्षों में उनकी शिक्षिकाओं में से एक हालाँकि बहुत सख्त थीं लेकिन बेहद समर्पित थीं। उनकी कर्तव्य निष्ठा ने लक्ष्मी को बहुत प्रभावित किया। एक छात्रा के रूप में अपने बाद के वर्षों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि कि उन्हें खुद को व्यक्त करने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया। एक बार नौवीं कक्षा में एक शिक्षक ने उनकी कक्षा को स्कूल के मैदान का चक्कर लगाने को कहा और लक्ष्मी इतनी अच्छी तरह से दौड़ीं कि शिक्षक ने दौड़ के लिए उन्हें चुन लिया। इस तरह, पहली बार, खेलों में उनकी प्रतिभा का पता चला। बाद में उन्होंने कई खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया।

हालाँकि उनका परिवार गरीब था और उनके पिता को नहीं लगता था कि वे उन्हें पढ़ा पाएँगे लेकिन लक्ष्मी इस बात पर अड़ी रहीं कि वे स्नातक स्तर की पढ़ाई ज़रूर पूरी करेंगी। वे बास्केटबॉल और वॉलीबॉल जैसे खेलों में अच्छी थीं, कॉलेज में दो साल तक चैंपियन भी रहीं। कड़ी मेहनत करने का गुण तो बचपन से ही उनमें कूट-कूट कर भरा था। उन्होंने CPEd (शारीरिक शिक्षा का प्रमाण पत्र) का कोर्स पूरा किया और पी.टी. (शारीरिक प्रशिक्षण) शिक्षिका बन गईं। शीघ्र ही वे प्राथमिक विद्यालय के बच्चों को पढ़ाने लगीं और कविताएँ सिखाने के लिए उन्होंने छोटे बच्चों के साथ काम करना शुरू किया।

अपने प्रारंभिक वर्षों में किन्सुर में एक निजी स्कूल और एक सरकारी स्कूल में कार्य करने के बाद लक्ष्मी को जीपीएस कांडा में स्थानांतरित कर दिया गया था। जब वे उस स्कूल में गईं तब वहाँ केवल 52 बच्चे थे और वह एकदम टूटी-फूटी हालत में था। शुरू में वे बहुत हतोत्साहित हुईं और उन्हें लगा कि वे शायद यहाँ टिक नहीं पाएँगी, लेकिन उन्हें दृढ़ विश्वास था कि बच्चों में कुछ नया सीखने की बहुत उत्सुकता होती है, अतः उन्होंने यह संकल्प लिया कि वे इस स्कूल में रहकर यहाँ की हालत सुधारेंगी।

लक्ष्मी ने पहली कक्षा में 65 नए छात्रों को दाखिला देकर अपने कार्य को शुरू किया। विद्यालय परिसर में केवल एक पेड़ था, इसलिए पेड़ लगाने शुरू किए और बच्चों की तरह की पेड़ों की देखभाल की। शुरुआत में उन्हें प्रारंभिक कक्षाओं को पढ़ाना कठिन लगा लेकिन बाद में वे इसका आनंद लेने लगीं क्योंकि उन्हें एहसास हुआ कि प्राथमिक स्कूल के बच्चे कितने संवेदनशील थे। उन्होंने बच्चों को कहानियों के माध्यम से पढ़ाया और गणित पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि यह एक ऐसा विषय था जिससे वे खुद बचपन में डरती थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि ‘जब हममें कोई कमज़ोरी होती है तो हम दूसरों के साथ उस पर कड़ी मेहनत करते हैं,’ उन्होंने अपने लिए कुछ बुनियादी अपेक्षाएँ नियत कीं और उस दिशा में कार्य करने में जुट गईं।

शुरुआत से ही लक्ष्मी ने खेल संबंधी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया और अपने छात्रों को विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं में भाग दिलाने के लिए ले गईं।उन्होंने इस कार्य को जारी रखा है और अपने छात्रों को आस-पास के स्थानों पर आयोजित प्रतियोगिताओं में ले जाती हैं भले ही दूसरे लोग इसका समर्थन करें या न करें। कभी-कभी वे उन्हें अपने खर्च पर भी ले जाती हैं और कई बार उन आयोजकों से लड़ भी पड़ती हैं जो उनके छात्रों को इसलिए वापस भेज देते हैं क्योंकि प्राथमिक स्कूल के बच्चों को इतना महत्व नहीं दिया जाता। लक्ष्मी ने कभी हार नहीं मानी और अभिभावकों ने उनका साथ दिया। चूँकि उनके छात्रों ने खेल प्रतियोगिताओं में उत्कृष्टता हासिल की और पुरस्कार जीते इसलिए खेल जगत में छोटे बच्चों के लिए दरवाज़े खुल गए।

लक्ष्मी के शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया

लक्ष्मी ने बताया कि जब उनके छात्र कक्षा में सीख नहीं पाते तो उन्हें चिंता होती है और वे उन तरीकों के बारे में सोचना शुरू कर देती हैं जिनसे बच्चों को बेहतर तरीके से पढ़ाया जा सके। उदाहरण के लिए उन्होंने देखा कि एक बच्चा पाठ पढ़ने में रुचि नहीं ले रहा लेकिन उसे बागवानी में मज़ा आता है। तो उन्होंने उसे पौधे लगाने और स्कूल के बगीचे की देखभाल करने के काम में लगाया। धीरे-धीरे बच्चे ने स्कूल के कामों में दिलचस्पी लेना और सीखना शुरू कर दिया।

लक्ष्मी इस बात पर ज़ोर देती हैं कि सिखाने के लिए सीखना बहुत ज़रूरी है। वे कहती हैं,‘मैं कुछ भी नया सीखने को तैयार हूँ अगर उससे मेरे बच्चों को बेहतर रूप में सीखने में मदद मिले और हाँ, मैं टैकनोलजी या तकनीकी चीज़ें सीखने से भी नहीं झिझकती।’ वे कक्षा में पढ़ाने के लिए वीडियो का भी उपयोग करती है।

अपनी शिक्षण रणनीतियों के लिए लक्ष्मी बच्चे और उसके परिवार को जानने के महत्व पर जोर देती हैं और मानती हैं कि शिक्षक को प्रत्येक बच्चे की रोजमर्रा की दिनचर्या से परिचित होना चाहिए। उनके अनुसार कक्षा में सीखने का पहला रूप कहानियों, कविताओं और गीतों के माध्यम से है।

सीखने के लिए मज़बूत नींव के महत्व पर जोर देते हुए वे कहती हैं जब बच्चे मौखिक भाषा अच्छी तरह से सीख लेते हैं तो वे आसानी से लेखन की ओर बढ़ सकते हैं। छात्रों की प्रगति पर लगातार निगाह रखी जाती है और जिन बच्चों को अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता होती है उन्हें आवश्यकतानुसार अतिरिक्त कार्य दिए जाते हैं। ऐसा करने के लिए वे जल्दी स्कूल आती हैं। नई अवधारणाओं को खेल के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है और सुबह की प्रार्थना सभा में व्यायाम करते हुए बच्चों को गणित के पहाड़े सिखाए और दोहराए जाते हैं। वास्तव में सुबह की प्रार्थना सभा पर बहुत ध्यान दिया जाता है जहाँ सभी बच्चों को बोलने का अवसर मिलता है और बाकी छात्र ध्यान से सुनते हैं।

लक्ष्मी स्कूल में हर दिन एक नई कहानी लेकर आती हैं और उसके माध्यम से पढ़ाती हैं। उनकी एक कक्षा जिसका मैंने अवलोकन किया उसमें उन्होंने असाधारण ऊर्जा और जुनून के साथ भावों को अभिव्यक्त करते हुए तथा बच्चों को शामिल करते हुए एक कहानी सुनाई। एक अन्य कक्षा में उन्होंने ब्लैकबोर्ड पर एक वाक्य लिखा और बच्चों को उसमें वाक्य जोड़ते जाने को कहा ताकि एक कहानी बन जाए। उन्होंने इसे बच्चों के रोजमर्रा के अनुभवों से जोड़ा।

गणित के अभ्यास में लक्ष्मी ने व्यावहारिक उदाहरणों का इस्तेमाल किया – उन्होंने गत्ते से रोटियों का आकार काटा और बच्चों से पूछा कि उन्हें कितनी रोटियाँ चाहिए और उन्हें ज़ोर-ज़ोर गिनते हुए बच्चों को दिया। उन्होंने हिस्सों और हिस्सों के योग को समझाने के लिए एक सेब भी काटा और उसके बाद वह सेब बच्चों में बाँट दिया। इस सब के दौरान वे बच्चों से यह पूछना नहीं भूलीं,‘ क्या आपको नींद आ रही है?’, ‘क्या अब हम सब एक गाना गाएँ?’ और यह सुनिश्चित किया कि वे सभी चौकस थे और पाठ में रुचि ले रहे थे। बच्चों को घूमने-फिरने और अपने हिसाब से सीखने की भी आज़ादी थी।

लक्ष्मी स्कूल के दूसरे शिक्षक की मदद लेती हैं और वे अक्सर साथ में काम करते हैं। उनकी पाठ योजना बहुत ज़्यादा संरचित/सुनियोजित नहीं होती और दिन के कार्यकलाप बच्चों की गति के अनुसार चलते हैं। लक्ष्मी ने बताया कि उन्हें अपने शिक्षण-अधिगम सामग्री के विकास में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन का सहयोग मिला।

लक्ष्मी ने एक ऐसे बच्चे का ज़िक्र किया जो बहुत कठिन परिस्थितियों में बड़ा हो रहा था और बताया कि वे उसके साथ कैसे काम करती हैं। यह बच्चा इस स्कूल में आने से पहले चार स्कूलों में पढ़ चुका था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसके माता-पिता को बार-बार रहने का स्थान बदलते रहना पड़ता थाI स्कूल से लंबे समय तक अनुपस्थित रहने के कारण वह पढ़ना या लिखना नहीं जानता था। लक्ष्मी ने उसके साथ वर्णमाला पर काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने माता-पिता को बच्चे की पढ़ाई-लिखाई में शामिल करने के लिए उसके घर का दौरा किया और पाया कि माता-पिता अलग-अलग रह रहे थे। बच्चे की माँ शहर में रहती थीं इसलिए लक्ष्मी ने उनसे फोन पर संपर्क किया और लगातार उन्हें बच्चे की प्रगति के बारे में सूचित करती रहीं। उन्होंने बच्चे को हर रोज़ अपने साथ स्कूल लाने का फैसला किया। बच्चे के नाखूनों को काटना, पाठ समझाना और अन्य बच्चों के साथ उसके संबंधों की समझ जैसी हर छोटी-बड़ी बात पर उन्होंने कड़ी नज़र रखी है।

समुदाय के साथ संबंध

आसपास के गाँवों के जो परिवार अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं वे गरीब हैं और कई कठिनाइयों का सामना करते हैं। चूँकि खेती का उत्पादन हर साल कम हो रहा है इसलिए कई परिवार बड़े शहरों में जाकर बसने लगे हैं। कई बच्चे दादा-दादी के पास रहते हैं और उनके माता-पिता शहरों में रहते हैं या काम के सिलसिले में लंबे समय तक बाहर रहते हैं। उन्हें अपने बच्चों के साथ समय बिताने का मौका नहीं मिलता। शराब की लत और घरेलू हिंसा अन्य प्रमुख समस्याएँ हैं। इन समस्याओ का आलम ये है कि लक्ष्मी बच्चों की वर्दी के पैसे उनके माता-पिता को नहीं देतीं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं इसका उपयोग शराब खरीदने के लिए न कर दिया जाए। वे खुद बच्चों के लिए वर्दी खरीदती हैं और सीधे उन्हें देती है।

लक्ष्मी कहती हैं कि माता-पिता स्कूल के साथ बहुत सहयोग करते हैं और उन्हें परिवार का सदस्य मानते हैं। उन्हें शादियों में आमंत्रित किया जाता है और वे इन कार्यक्रमों में अपना योगदान भी देती हैं। वे माता-पिता को स्कूल की गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करती हैं; सामुदायिक बैठकों और स्कूल कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं ताकि वे उनमें भाग ले सकें। लक्ष्मी के इस स्कूल में आने से पहले माता-पिता कभी स्कूल नहीं आए थे। उन्होंने अभिभावकों से कहा है कि वे स्कूल को जितना भी समय और संसाधन दे सकते हैं, उतना दें। उनके अनुसार पारिवारिक परिस्थितियाँ बच्चों के अधिगम पर प्रभाव डालती हैं अतः उन्हें कम से कम पढ़ाई करने के लिए शांतिपूर्ण वातावरण तो मिलना ही चाहिए। उनका मानना ​​है कि व्यक्तिगत स्वच्छता (वे स्कूल में शैंपू, नेल-कटर और साबुन रखती हैं) से लेकर भावनात्मक जरूरतों तक, शिक्षक बच्चे के जीवन के सभी पहलुओं का हिस्सा होते हैं। वे मानती हैं कि वे स्कूल में बच्चों के लिए माता-पिता की तरह हैं। वे माता-पिता को उनके बच्चों की प्रगति के बारे में बताती हैं ताकि उन्हें भी इस प्रक्रिया में शामिल रखा जा सके और उन्होंने अभिभावकों के सामने अपनी एक स्पष्ट अपेक्षा रखी है कि उन्हें हर दिन अपने बच्चों को स्कूल भेजना होगा।

समुदाय के साथ अच्छे संबंध बनाने के बारे में उनके विचार बहुत सरल हैं। वे कहती हैं कि ‘इसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं करना है। आपको बस उनके साथ अच्छा बर्ताव करना है, जब आप उनसे मिलें तो नमस्ते कहें, उनसे उनके बच्चों और उनके अपने जीवन के बारे में पूछें। कभी-कभी तो बस मैं उनके साथ बैठकर चाय पीती हूँ।’

हमसे बात करने के लिए 10-12 माताओं को स्कूल में आमंत्रित किया गया था। लक्ष्मी के छात्रों ने अपने वार्षिक दिवस समारोह में किए कार्यक्रमों में से कुछ गाने और नृत्य प्रस्तुत किए और माताओं को चाय व बिस्कुट दिए गए। माताओं ने कहा कि वे अपने बच्चों को लक्ष्मी के कारण स्कूल भेजती हैं, ‘लक्ष्मी मैडम बहुत अच्छी हैं। हम उनसे बहुत खुश हैं। उन्होंने यह भी कहा कि लक्ष्मी समुदाय के साथ जुड़ने का प्रयास करती हैं और वे उनसे बच्चों के बारे में इसलिए बात करती हैं क्योंकि उन्हें उनकी चिंता है शिकायत करने के लिए नहीं।

लक्ष्मी के संघर्ष

लक्ष्मी ने ‘सिस्टम से लड़ने’ के बारे में अधिक बात की न कि उन पहलुओं की जिन्होंने उनके उत्साह को कम करने की कोशिश की। उन्होंने एक घटना सुनाई जिसने उन्हें एहसास दिलाया था कि वे लड़ने में सक्षम हैं। एक सरकारी अधिकारी ने स्कूल के विस्तारण पर आपत्ति जताई थी। लक्ष्मी ने उनका डट कर सामना किया, अभिभावकों को भी शामिल किया और भवन पूरा होने तक स्कूल में रातें भी बिताईं। कई बार लोगों ने महिला होने के कारण उन्हें टालने की कोशिश भी की लेकिन उन्होंने इस पर सवाल उठाए और इसे अपने काम के रास्ते में नहीं आने दिया। वास्तव में हाल ही में उन्हीं के प्रयासों कारण स्कूल तक की सड़क बनी क्योंकि वे उच्च अधिकारियों तक यह माँग लेकर गईं।

शिप्रा सुनेजा, संकाय, अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालयअब उनकी मुख्य चिंता यह है स्कूल में बच्चों की संख्या लगातार कम होती जा रही है क्योंकि कई परिवार शहरों में जाकर बसने लगे हैं। वर्तमान में यहाँ लगभग 45 बच्चे नामांकित हैं।

लक्ष्मी ने / के साथ काम करने की असमर्थता भी जताई। इन बच्चों को स्कूल में नामांकित किया जाता है लेकिन वे स्कूल नहीं आ पाते क्योंकि उनके लिए स्कूल आने-जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। वे मानती हैं कि ऐसे मामलों में और लगातार प्रयासों के बाद भी न सीख पाने वाले बच्चों के साथ वे कुछ कर पाने में सफल नहीं हो पाई हैं। उन्होंने कहा,‘उन लोगों के साथ क्या करें जिनमें सीखने की क्षमता ही नहीं होती।’ उन्होंने स्कूल में विशेष शिक्षा के शिक्षक की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

उनकी उपलब्धियाँ

लक्ष्मी को 2004 में पहला ‘सर्वश्रेष्ठ शिक्षक पुरस्कार’ मिला, इसके बाद 2006 में ‘राज्य पुरस्कार’ और 2015 में उन्हें ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’ मिला। लक्ष्मी कहती हैं कि उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें ये पुरस्कार दिए जाएँगे या बच्चे उन्हें इतना प्यार देंगे और समुदाय उन्हें उसी रूप में स्वीकारेगा जैसी वे हैं। उनके कई बच्चों को नवोदय और हिमज्योति स्कूलों में प्रवेश मिला है। उनके बच्चों ने कई खेल और गायन प्रतियोगिताएँ जीती हैं। पिछले सोलह वर्षों से उनके छात्र प्राथमिक विद्यालयों के लिए आयोजित होने वाली अन्ताक्षरी (गायन) प्रतियोगिता जीत रहे हैं। उन्होंने गर्व से बताया कि कैसे उनके बच्चे (वे उन्हें ‘मेरे बच्चे’ कह कर बुलाती हैं) आग की चक्करदार पट्टी के आरपार कूद सकते हैं।

लक्ष्मी का कहना है कि व्यक्तिगत स्तर पर उनकी एक जीत यह है कि वह तकनीकी/टैकनोलजी का अधिक से अधिक उपयोग कर रही हैं (वे कक्षा में वीडियो का उपयोग और अपने कार्य करने के नए तरीके सीखने के लिए इंटरनेट का उपयोग करती हैं)।

निष्कर्ष

चेहरे पर एक दृढ़ संकल्प के भाव के साथ लक्ष्मी बताती हैं,‘आप चाहें तो इसे मेरा पागलपन कह सकती हैं लेकिन मेरा जीवन इन बच्चों के लिए समर्पित है।’ लक्ष्मी ने स्कूल चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी संभाल ली है – भवन निर्माण से लेकर बच्चों के सीखने, प्रतियोगिताओं में भाग लेने और समुदाय के साथ संबंध बनाए रखने तक की।

उनकी असीम ऊर्जा संक्रामक है। वे जो कुछ नहीं जानतीं, उसे स्वीकार करती हैं और आवश्यकता पड़ने पर बच्चों से भी सीखने को तैयार रहती हैं। वे कहती हैं,‘मैं किसी भी चीज़ को “न” नहीं कहती, यह शब्द मेरे शब्दकोश में नहीं है। वे बच्चों के विचारों का सम्मान करती हैं और उनके सवालों का धैर्यपूर्वक जवाब देती हैं। उनका मानना है कि बच्चों से जो कुछ भी अपेक्षित है, उसे करने के लिए उन्हें अवसर दिए जाने चाहिए। उन्होंने अपनी शैक्षणिक विधियों में बच्चों के सीखने के स्वाभाविक तरीके को शामिल किया है। वे प्रत्येक बच्चे के विकास पथ के बारे में जानती हैं और पाठ के अलावा उनकी रुचियों पर ध्यान भी केंद्रित करती हैं। वे कहानी कहने की कला का बहुत प्रभावी ढंग से उपयोग करती हैं। यद्यपि ध्यान अभी भी पारंपरिक अर्थों में वर्णमाला सीखने पर रहा, उन्होंने बच्चों को कक्षा के साथ जोड़े रखने के लिए अन्य विभिन्न तरीकों का भी इस्तेमाल किया। उनके लिए अनुशासन स्कूली शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है- इसका अर्थ पूर्ण रूप से झुकना नहीं है, लेकिन अधिकार हमेशा स्पष्ट रूप से स्थापित होता है। उन्होंने बच्चों को अनुशासित करने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल किया,‘ हम छड़ी भी दिखाते हैं लेकिन सीखना इस पर आधारित नहीं है।’

लक्ष्मी आंतरिक रूप से प्रेरित हैं और हालाँकि पुरस्कार प्रोत्साहन का एक निरंतर स्रोत होते हैं, लेकिन खुद सीखने और बच्चों को शिक्षित करने की इच्छा ही वह कारक है जो उन्हें निरंतर आगे बढ़ाती है। ऐसा लगता है कि स्कूल के अभिभावकों को उन पर पूरा भरोसा है। उनमें से कई अभिभावक गाँव में ही रह जाने को इसलिए तैयार हो गए ताकि उनके बच्चे लक्ष्मी टीचर के स्कूल में पाँचवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी कर सकें। उन्हें हर बच्चे, माता-पिता और समुदाय की फ़िक्र है। लक्ष्मी का मानना ​​है कि विश्वास माता-पिता को स्कूल के करीब ला सकता है और इस प्रकार अपने बच्चे की शिक्षा के लिए उनका समर्थन सुनिश्चित कर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि गाँव के लोगों ने छोटे लड़कों और लड़कियों के बीच भेदभाव नहीं किया और वे अपने बच्चों को भी यही बात सिखा रही हैं ताकि जब वे बड़े हों तब भी भेदभाव की यह भावना न रहे।

आभार: मैं सुश्री लक्ष्मी को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने बड़े उत्साह के साथ अपने स्कूल में हमारा स्वागत किया और अपने जीवन की कहानी साझा की। मुझसे बातचीत करने के लिए मैं बच्चों, स्कूल के अन्य शिक्षक और सहायक कर्मचारियों को भी धन्यवाद देना चाहती हूँ। मैं अपने सहकर्मी श्री संजय जी (सदस्य, जिला संस्थान, कोटद्वार, अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन) की आभारी हूँ, जो मेरे साथ स्कूल गये, पूरी प्रक्रिया को सुगम बनाया और मुझे स्कूल की परिस्थिति के बारे में जानकारी दी।

लेखिका

शिप्रा सुनेजा, संकाय, अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय

Print Friendly, PDF & Email

1 comment on “स्कूल में बच्चों को बनाए रखने के लिए सामुदायिक संबंध महत्वपूर्ण हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to top